पंचायती राज व्यवस्था के निर्वाचित प्रतिनिधियों के कार्यकाल समाप्त होने के बाद ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद भंग हो जायेगी। वे सभी निर्वाचित सदस्य सड़क पर आ जायेंगे। पहली नजर में बिहार पंचायत राज अधिनियम में संशोधन से जुड़े अध्यादेश को देखकर यही लगता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि परामर्शदात्री समिति नाम की एक नयी सत्ता केंद्र खड़ी की जायेगी। इसके सभी सदस्य मनोनीत होंगे। मनोनयन का अधिकार किसे होगा, इसका फैसला पंचायत राज विभाग अधिसूचना के माध्यम से करेगा।
लेकिन राज्य सरकार आरक्षण के माध्यम से दलितों और अतिपिछड़ों तक पहुंची ग्रामीण सत्ता उनसे छीनकर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहारों (B-R-Bh) को सौंपना चाहती है। यही जातियां भाजपा का वोट बैंक भी हैं, जबकि जिन अतिपिछड़ी जातियों का अधिकार छीना जा रहा है, वे जदयू के आधार माने जाते हैं। आरक्षण के कारण सबसे अधिक नुकसान ब्राह्मण, राजपूत व भूमिहारों को ही हुआ है। परामर्शदात्री समिति के माध्यम से भाजपा उसकी भरपाई करना चाहती है। अध्यादेश के माध्यम से चुनाव की बाध्यता और समय सीमा समाप्त कर दी गयी है। इस कारण परामर्शदात्री समिति का कार्यकाल महीनों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता है।
इसके अलावा भाजपा यादवों को ग्रामीण सत्ता से बेदखल करना चाहती है। उसका मकसद भी परामर्शदात्री समिति से पूरा हो जायेगा। पंचायती राज व्यवस्था में 35 फीसदी सीट दलितों और अतिपिछड़ी जातियों ने छेंक ली है और अनारक्षित सीटों पर 25 फीसदी से ज्यादा सीटें यादवों ने कब्जा कर रखा है। यही बात भाजपा के आधार जातीयों को नागावार गुजरती है। ग्रामीण सत्ता में बन रहा नया केंद्र परामर्शदात्री समिति में सबसे अधिक हिस्सेदारी भाजपा के आधार वोट ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहारों की होगी। भाजपा परामर्शदात्री समिति में अपनी जातीय आधार को समाहित करेगी। इसकी आशंका प्रबल है। परामर्शदात्री समिति की आड़ में भाजपा एक साथ अतिपिछड़ा और यादवों को ग्रामीण सत्ता से बेदखल करने के अपने प्रयास में सफल हो जायेगी। इससे भाजपा का अपना आधार मजबूत होगा और जदयू को ‘मिट्टी में मिलाने’ का सपना भी साकार होगा।