जेठ की दोहपरी से हर कोई परिचित होंगे। देह झुलसा देने वाली गर्मी और बधार में चलने वाली लू। सहारा बस पेड़ों का। स्कूल के जमाने में गर्मी की छुट्टी में भैंस की चरवाही का अपना आनंद। सोन नदी के किनारे खेतों में भैंस हांककर पेड़ के पास गुल्ली डंडा या डोल पत्ता का खेल। इस दौरान एक कहावत बड़ी प्रचलित थी कि दिन-दोपहरिया में कोई भूत दिख जाये तो हनुमान चालीसा पढ़ने से भूत भाग जाता है।
वर्षों बाद भैंस की चरवाही छोड़कर खबरों की पहरेदारी में आये। यहां एक नयी कहावत गढ़ने का मौका मिला। हनुमान चालीसा पढ़ने से भूत भागता है और लालू चालीसा पढ़ने से भूमिहार ‘भागता’ है। लालू यादव 1990 में मुख्यमंत्री बने। करीब चार-पांच साल बाद उनके दो मित्र नीतीश कुमार और सुशील मोदी उनके ‘दुश्मन’ बन गये। दरअसल यादव के सत्ता में आने के बाद पिछड़ों और दलितों में सत्ता की भूख पैदा हुई और उसी भूख की उपज थे नीतीश-सुशील। इस भूख को नीतिगत आकार दिया भाजपा के नेता गोविंदाचार्य ने। उन्होंने एक नया शब्द गढ़ा – सोशल इंजीनियरिंग। यह शब्द भाजपा के संदर्भ में गढ़ा गया था, लेकिन उसमें फिट बैठ गये नीतीश कुमार। सोशल इंजीनियरिंग की सहज स्वीकार्यता में सबसे बड़ी बाधा भूमिहार जाति और उसके नेता थे। उसका काट सुशील मोदी ने खोज निकाला और वह काट था ‘लालू चालीसा’।
1996 नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद सुशील मोदी को समझ आ गया कि यह राह आसान नहीं है। पटना विश्वविद्यालय में उन्होंने समझ लिया था कि यादव और भूमिहार एक-दूसरे के ‘कट्टर’ दुश्मन हैं। पटना विश्वविद्यालय में भूमिहारों के वर्चस्व को यादवों ने ही ध्वस्त किया था। नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद सुशील मोदी ने लालू यादव के खिलाफ अभियान शुरू किया। नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद मीडिया में स्वीकार्यता बढ़ गयी। लालू के खिलाफ उनके बयान को मीडिया में प्रमुखता मिलती थी। लालू यादव के खिलाफ सुशील मोदी का ‘विषवमन’ भूमिहारों को रास आने लगा। सुशील मोदी का यह ‘लालू चालीसा’ उनके लिए रामवाण साबित हुआ। कांग्रेस के पतन के बाद भूमिहारों का भाजपा की ओर पलायन शुरू हो गया। भूमिहारों के बड़े नेता भाजपा में शामिल होने लगे। लेकिन भूमिहारों ने भाजपा में कभी बड़ा नेता बनने की कोशिश नहीं की। आज भूमिहारों के बल पर भाजपा बड़ी ताकत बनी है, लेकिन प्रमंडल स्तरीय एक भूमिहार नेता भी भाजपा के पास नहीं हैं। वजह है कि सुशील मोदी के ‘लालू चालीसा’ से भूमिहार हाशिये पर चला जाता है। पिछले 15 वर्षों में सुशील मोदी और नीतीश कुमार दोनों ‘लालू चालीसा’ की ताकत पर राज कर रहे हैं और भूमिहारों को सत्ता की बैलगाड़ी में जोत कर ‘गाड़ीवान’ बने हुए हैं।