बिहार लोक सेवा आयोग सबसे बड़ा और विश्सनीय नियोजन इकाई है। प्रमुख प्रशासनिक पदों के लिए बीपीएससी ही परीक्षा का आयोजन करता है, परिणाम देता है और नियुक्ति की सिफारिश राज्य सरकार से करता है। इसकी सिफारिश के आलोक में नियुक्ति भी होती है। एसडीओ और डीएसपी जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पदों के लिए बीपीएससी की परीक्षा ही उत्तीर्ण करनी होती है।
आयोग की अपनी एक प्रशासनिक ढांचा है। इसमें पदसोपान के हिसाब से अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त हैं। इसके सबसे बड़े नीति नियंता होते हैं आयोग के अध्यक्ष और सदस्य। इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राज्य सरकार करती है। इनकी नियुक्ति के लिए भी मानदंड तय हैं। इनका कार्यकाल 6 वर्षों का होता है। इसके लिए उम्र का बंधन भी तय है।
राज्य सरकार आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति में सामाजिक समीकरणों का पूरा ख्याल रखती है। इसमें सरकार में बैठे लोगों का आग्रह या पूर्वाग्रह भी काम करता है। लालू यादव के राज में करीब दो वर्षों को छोड़कर यादव ही अध्यक्ष रहे, जबकि सदस्यों की नियुक्ति में राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण समेत सभी जातीय वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलता रहा था। लेकिन 2005 में सत्ता बदलने और नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद से आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की जातीय ढांचे में पूरी तरह बदलाव आ गया। इसके अध्यक्ष पद पर अधिक समय तक सवर्णों का कब्जा रहा, जबकि सदस्यों में बहुसंख्यस सवर्ण जातीयों को ही जगह दी गयी। सवर्णों में भी राजपूतों की पूरी तरह अनदेखी की गयी।
पिछले 15 वर्षों में एक भी राजपूत या यादव को बीपीएससी में सदस्य नहीं बनाया गया। दलितों की हिस्सेदारी भी लगभग न के बराबर रही। इस सामाजिक असमानता या भेदभावपूर्ण नियुक्ति के पीछे सरकार की क्या मंशा रही होगी, यह बताना मुश्किल नहीं है। यादवों को हाशिये पर डालना तो समझ में आता है, लेकिन राजपूतों को दरकिनार करने की सोशल इंजीनियरिंग समझ से परे है।
(पाठक इस संबंध में सूचनाएं साझा कर सकते हैं। 9199910924)