बिहार विधान मंडल की दो सदन है। विधान सभा और विधान परिषद। दोनों के अपने-अपने प्रशासनिक प्रमुख हैं। विधान परिषद के इतिहास में करीब आधे समय तक ‘केयर टेकर’ प्रमुख ही रहे हैं। केयर टेकर का आशय राज्यपाल द्वारा मनोनीत सभापति। मनोनीत को कार्यकारी सभापति कहते हैं। उपसभापति भी जब कभी सभापति का पद रिक्त होने पर सभापति के दायित्वों का निर्वाह करते हैं तो वह भी ‘केयर टेकर’ ही होते हैं।
विधान सभा की 22 कमेटियां हैं, जबकि विधान परिषद में करीब तीन दर्जन समितियां हैं। इन कमेटियां को ‘मिनी सदन’ भी कहा जाता है। विधान सभा या परिषद सत्र के दौरान काम करती हैं, जबकि कमेटियां सालों भर काम करती हैं। यदि विधान सभा या परिषद का सत्र नहीं चल रहा हो तो दस दिनों में कमेटी की एक बैठक होना जरूरी है। इसका सबसे सबल पक्ष यह है कि इन्हीं कमेटियों की बैठक में शामिल होने के बदले विधायकों और विधान पार्षदों को दैनिक भत्ता मिलता है। दैनिक भत्ता प्रतिदिन दो हजार रुपये मिलता है। इसकी शर्त है कि वह बिहार में रह रहे हों। यदि कोई विधायक तीन दिनों तक बिहार से बाहर हैं तो तीन दिनों का भत्ता कट जायेगा। इनके पांव में कूपन का ‘बेड़ी’ लगा होता है। बिहार से बाहर विधायक या पार्षद कूपन से ट्रेन या जहाज से यात्रा करते हैं। इसलिए उनके मोवमेंट पर विधान सभा की पकड़ रहती है। इसकी भी अपनी प्रक्रिया है।
ये सब था तकनीकी पक्ष। लेकिन इसका व्यावहारिक पक्ष काफी हास्यास्पद और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ जैसा है। कमेटियों की बैठक कमेटी से संबंधित विषय और विभाग पर विधायी नियंत्रण के लिए होता है। कार्यों की प्रगति रिपोर्ट की जानकारी के लिए होती है। लेकिन व्यवहार में कमेटी की बैठक सिर्फ रजिस्टर पर हस्ताक्षर भर के लिए होती है। सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक जब भी मर्जी हो, हस्ताक्षर कर जाइए। हम पिछले 20 वर्षों से विधान मंडल की रिपोर्टिंग कर रहे हैं और तब से कमेटियों के बारे में यही सुनते आ रहे हैं।
कुछ कमेटियां के जिम्मे काम होता है। लेकिन काम होते दिखता नहीं है। विधान सभा की कमेटियां रिपोर्ट भी प्रस्तुत करती हैं, लेकिन उस पर कभी चर्चा हुई हो, ऐसा लगता नहीं है। समितियों के अंदर अकुलाहट और संवादहीनता खतरनाक मोड़ तक पहुंच गया है। विस्तारित भवन में दोनों सदनों की कमेटियों के लिए अलग-अलग कमरा आवंटित है, लेकिन उस कमरे में अध्यक्ष या सदस्य कितनी देर बैठते हैं, यह वही बता पायेंगे। पिछले दिनों की बात है। एक कमेटी में सदस्य से मुलाकात करने हम उनके कमेटी कक्ष में गये थे। उसी समय उसी कमेटी के दूसरे सदस्य पहुंचे। एक राजद के थे और दूसरे भाजपा के। दोनों में थोड़ी बातचीत भी हुई। इसी बातचीत एक सदस्य ने दूसरे सदस्य पर आरोप मढ़ दिया कि आप तो डीएम के आगे-पीछे करते हैं। दूसरे सदस्य ने पूछा कि हमको पहचान रहे हैं। आप किसकी बात कर रहे हैं। पहले ने कहा कि हम फलां क्षेत्र के विधायक की बात कर रहे हैं। तब उन्होंने कहा कि हम दूसरे जिले के हैं और आप दूसरे जिले के। तब अपनी गलती का अहसास पहले सदस्य को हुआ। इसके बाद हमने दोनों का आपस में परिचय कराया और बताया कि कौन कहां से विधायक हैं और किस तीसरे पर टिप्पणी हो रही थी।
पिछले दिनों एक और खतरनाक प्रवृति देखने को मिली। कुछ सदस्य पोर्टिको के बाहर रजिस्टर मंगवाकर हस्ताक्षर कर बैठक का कोरम पूरा करते दिखे। मतलब कि वे बैठक के लिए निर्धारित कक्ष में आना भी जरूरी नहीं समझते हैं। विधान परिषद की हालत इससे अलग नहीं है। वहां भी समितियों के अध्यक्ष या सदस्य लॉबी में ही रजिस्टर मंगवाकर हस्ताक्षर करते हैं और बैठक का कोरम पूरा होता है।
समितियों की रिपोर्ट, उसकी प्रस्तुति और अनुंशसा पर कितना काम होता है, इसकी कोई आधिकारिक रिपोर्ट कहीं मिलती है। समितियों की रिपोर्ट या अनुशंसा विधान सभा और परिषद सचिवालय के पास हो तो उसे हम देखना और पढ़ना चाहेंगे, ताकि अपने पाठकों को बता सकें कि समितियों के जिम्मे क्या काम है। समितियों के अध्यक्षों को खुद भी चाहिए कि मीडिया के माध्यम से अपनी उपलब्धि या कामों से जनता को अवगत करायें। विधान सभा भी जनता के सरोकारों के लिए है। समितियां ऐसा कौन सा जनविरोधी काम करती हैं, जिस पर गोपनीयता का पर्दा डाल दिया जाता है।
दरअसल संकट यह है कि विधान सभा या परिषद सचिवालय मानता है कि समितियों की बैठक रिजस्टर पर हस्ताक्षर करके दैनिक भत्ता लेने का अभियान भर है। यदि समितियां काम के लिए होती तो काम दिखता भी। हर समितियों की बैठक की तिथि और समय सचिवालय तय करता है। खास बात यह है कि बैठक की सूचना में समय लिखा होता है। इसके बावजूद आमतौर पर निर्धारित समय पर बैठक के लिए एक साथ चार लोग नहीं जुट पाते हैं। बैठक का कोरम शायद चार लोगों का है। चार से कम लोग आयेंगे तो बैठक की कार्यवाही स्वीकार नहीं होगी और उस दिन के हस्ताक्षर को अनुपस्थित ही मान लिया जायेगा। कुछ कमेटियां में सदस्यों की संख्या कम है तो वहां कुछ रियायत भी मिली हो सकती है।
यह भी सच है कि हर बैठक के दिन लगभग सभी सदस्य आते हैं। हस्ताक्षर करके चले जाते हैं, पर समय अपनी सुविधा से तय करते हैं यानी सुविधानुसार आते हैं। यदि सभी सदस्य एक ही समय पर आ जायें तो समस्या का हल खुद ब खुद निकल आयेगा। एक साथ बैठेंगे तो बैठक के एजेंडे पर भी चर्चा होगी। अगली बैठक में उसकी रिपोर्ट और कार्यवाही पर विमर्श हो सकेगा। हर बैठक में विधान सभा समितियों के लिए अधिकारी और कर्मचारी प्रतिनियुक्त होते हैं। उनका भी सही इस्तेसमाल हो सकेगा।
दोनों सदन की समिति के अध्यक्ष और सदस्य समिति की बैठक को दैनिक भत्ता का आयोजन नहीं मानकर, जनता के काम का प्रायोजन मानेंगे तो बैठक खुद बोलने लगेगी। अध्यक्ष या सदस्य हर बैठक में आते ही हैं। एक ही समय पर बैठक में पहुंचेंगे तो उनका कुछ बिगड़ नहीं जायेगा, लेकिन उससे विकास योजना की कई राह निकल सकती है। विकास की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ सकती है। विधान मंडल में पहुंचे हर सदस्य पहले जनता के प्रतिनिधि हैं, तब किसी दल के सदस्य हैं। दल के नाम पर पूरे प्रदेश में आंदोलन कीजिये, कौन मना करता है। लेकिन महीने में तीन दिन कमेटियां की बैठक में भी उसी आंदोलनभाव से शिरकत करेंगे तो उस आंदोलन से भी बड़ा लक्ष्य हासिल होगा, जिसे आप आंदोलन के माध्यम से हासिल करना चाहते हैं।
(तस्वीर: विधान सभा की दो समितियों की बैठक में शामिल अध्यक्ष और सदस्य। )