मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो गुणों को ग्रहण किया है। पहला है मार्केटिंग और दूसरा है इवेंट मैनेजमेंट। नाम और काम को उचित दाम पर बेच लेने की कला अब मुख्यमंत्री ने भी सीख ली है। सोमवार को लगभग 3 साल बाद मुख्यमंत्री फिर जनता के दरबार में हाजिर हुए। कितना खूबसूरत नाम है- जनता के दरबार में मुख्यमंत्री। लेकिन जनता के नाम पर कौन लोग आये थे और उनकी ‘शाही यात्रा’ पर कितना खर्च हुआ। इसका हिसाब भी सरकार को देना चाहिए।
12 जुलाई को करीब सवा 12 बजे हम जनता दरबार के गेट पर पहुंचे। अधिकारियों का मजमा लगा था। दरबार में पत्रकारों के प्रवेश की अनुमति नहीं थी। शायद दो न्यूज एजेंसियों के प्रतिनिधियों को अनुमति दी गयी थी। कुछ यूट्यूब वाले गेट के बाहर ही ‘मुल्ला’ पकड़कर खबर बना रहे थे। जब हम पहुंचे तो भागलपुर से आये 5 फिरयादी बाहर निकल रहे थे। एक फरियादी को हमने भी पकड़ा। बातचीत में उन्होंने बताया कि भागलपुर जिले से 5 फरियादी आये हैं। इनके साथ 11 सदस्यों की सरकारी टीम भी आयी है, जिसमें नोडल अधिकारी, सुरक्षाकर्मी और अन्य कर्मचारी शामिल हैं। इस प्रकार भागलपुर जिले से 16 लोग आये थे। पांच की भैंस और 11 का पगहा। इन सबके आने-जाने और नालंदा में ठहरने का खर्चा जिला प्रशासन ने उठाया। पिछली रात 16 सदस्यीय भागलपुर टीम ने नालंदा के एक होटल में विश्राम किया और आज मुख्यमंत्री के जनता दरबार में पहुंचे। जनता दरबार के बाद सभी 16 लोगों के लिए लंच पैकेट एक बड़े कैरीबैग में था। उन पैकेटों को अलग-अगल छोटी कैरीबैग में रखा गया था। लंच खाने से ज्यादा आनंद तो कैरी बैग देखकर मिल रहा था। क्योंकि इन छोटे-बड़े झोलों पर ‘जनता के दरबार में मुख्यमंत्री’ के साथ अन्य जानकारी प्रिंट की गयी थी। थोड़ा ठहरिये। यदि 5 भैंस के साथ 11 चरवाहे होंगे तो भैंस क्या खायेगी और क्या पगुरायेगी।
शासन के शुरुआती 10 वर्षों तक अण्णे मार्ग में मुख्यमंत्री ने जनता दरबार लगावाया था। प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से आये लोगों की फरियाद सुनते थे। फरियादियों के लिए सत्तू और पानी का व्यापक इंतजाम होता था। जेठ की तपती दोपहरी में कई बार हमने भी सत्तू का ग्लास गटका था। दिव्यांग फरियादियों के लिए अलग व्यवस्था होती थी और मुख्यमंत्री बीच में खुद उठकर उन तक जाकर फरियाद सुनते थे। बहुत सारे लोग अपने झोले में नमक, सत्तू और प्याज लेकर भी आते थे ताकि समय मिलने पर खा सकें।
समय बदला। 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और 2015 नीतीश कुमार फिर सत्ता में वापस आते हैं। 2015 के बाद नीतीश कुमार मार्केटिंग और इवेंट मैनेजमेंट की ओर ज्यादा बढ़ने लगे। 2016 में शुरू हुआ ‘लोक संवाद’। सीएम सचिवालय के संवाद हॉल में लगता था लोक संवाद। इसके लिए कई स्वांग रचे गये। बड़ा-बड़ा विज्ञापन प्रकाशित किया जा रहा था। ऐसे आवेदन कीजिये तो वैसे आवेदन कीजिये। एक दिन में अधिकतम 50 लोगों को इसमें आमंत्रित किया जायेगा। लेकिन कभी 50 लोग नहीं आये। लोकसंवाद में आये फरियादियों और पत्रकारों के लिए पटना के सबसे महंगे होटल मौर्या की कैटरिंग टीम रहती थी। नाश्ते का भरपूर इंतजाम। लेकिन छह-आठ माह होते-होते लोकसंवाद की सांस फूलने लगी। फरियादियों की संख्या 10 के नीचे पहुंच गयी। फिर भी सरकार ढोती रही। इस बीच सरकार के ‘बैल’ बदल दिये गये। नयी सरकार बनी और लोक संवाद का आयोजन फिर अण्णे मार्ग में होने लगा। जिस जगह पर जनता दरबार लगता था, उसी जगह पर लोक संवाद और नेक संवाद नामक दो सभागार बनाये गये। लोकसंवाद सभागार में ही लोकसंवाद आयोजित किया जाने लगा। लेकिन लोगों में लोकसंवाद को लेकर उत्साह नहीं जुटा। एक दिन पत्रकारों के साथ अनौपचारिक बातचीत में मुख्यमंत्री ने माना कि आवेदन ही नहीं आते हैं। शायद वही दिन था, जिसके बाद लोकसंवाद भी स्थगित हो गया।
नीतीश कुमार ने तीसरी बार जनता के साथ संवाद का तीसरा प्रयास पूरी तरह हाइटेक तरीके से शुरू किया है। नाम दिया है पुराना वाला- जनता के दरबार में मुख्यमंत्री। सब कुछ ऑनलाइन। पूरी व्यवस्थित तरीके से। फरियादी ‘स्वतंत्र कैदी’ की तरह आते हैं अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों के घेरे में। उनके ही खर्चे पर। लेकिन आम जनता मुख्यमंत्री के तीसरे प्रयास को पहला प्रयास के समान ही मान लेती है। आज सीएम सचिवालय की घेरेबंदी के बाहर राजभवन की ओर दो फरियादी मिल गये, जो अपनी शिकायत लेकर आये थे। पुराने स्टाइल में यानी उन्हें भरोसा था कि मुख्यमंत्री से मुलाकात करना पहले की तरह सहज और सुलभ है। उन्हें यह नहीं मामूल था कि मुख्यमंत्री पिछले 16 वर्षों में 6 बार शपथ ग्रहण कर चुके हैं। अब जनता उनके लिए मार्केट का प्रोडक्ट है, उसकी मार्केटिंग का नया ब्रांड है- जनता के दरबार में मुख्यमंत्री। अब इस जनता दरबार में न कोई सत्तू लेकर पहुंचता है और न सरोकार लेकर। जनता के नाम पर आया हर फरियादी बाजार लेकर पहुंचता है, जिस पर अपने जिले से पटना पहुंचते-पहुंचते सत्ता का रंग चढ़ चुका होता है। जिसे आप और हम देख-सुन रहे हैं, वह सिर्फ राजा के दरबार में सत्ता की रागदरबारी है।