बिहार की सत्तारूढ़ पार्टी है जनता दल यूनाइटेड। उसके मुखिया हैं नीतीश कुमार। पार्टी के मैनेजर बदलते रहे हैं। मैनेजर मतलब राष्ट्रीय अध्यक्ष। पिछले 31 जुलाई को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आरसीपी सिंह से इस्तीफा ले लिया गया और उनकी जगह पर ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। ललन सिंह मुंगेर से जदयू के लोकसभा सदस्य हैं, जबकि आरसीपी सिंह राज्यसभा सदस्य हैं।
आरसीपी सिंह और ललन सिंह जदयू के दो तट हैं, दो किनारे हैं। दोनों में न सामाजिक समानता है और न राजनीतिक। एक कुर्मी हैं और दूसरे भूमिहार। दोनों अपने-अपने आग्रहों के साथ नीतीश कुमार के वफादार हैं। लेकिन दोनों की अपनी सत्ता आकांक्षा भी है। इन दोनों को जब भी मौका मिला तो नीतीश कुमार को औकात दिखाने से बाज नहीं आये। 2009 में ललन सिंह ने जदयू के सांसद रहते हुए किसान महापंचायत के नाम पर नीतीश कुमार की राजनीतिक औकात बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए वापस नीतीश की शरण में आने से भी कोई परहेज नहीं रहा। आरसीपी सिंह की राजनीति की शुरुआत राज्य सभा सदस्य के रूप में हुई थी। इससे पहले वे आइएएस अधिकारी के रूप में मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव हुआ करते थे। इस्तीफा दिलवाकर नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा था। लेकिन मौका मिलते ही आरसीपी सिंह मुख्यमंत्री की मर्जी के खिलाफ केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गये। इससे नाराज मुख्यमंत्री ने आरसीपी सिंह को इस्तीफा देने पर विवश कर दिया।
अब जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ललन सिंह, भूमिहार। ललन सिंह तीन दशकों से नीतीश कुमार के साथ राजनीतिक कर रहे हैं। कुछ मनमुटाव के बावजूद ललन सिंह की वफादारी नीतीश कुमार के प्रति बनी रही है। पार्टी के प्रारंभिक दौर में ललन सिंह फंड मैनेजर हुआ करते थे। धीरे-धीरे विश्वस्त सहयोगी बन गये। कई बार वे राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य भी रहे। सांसद भी रहे। अब राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
गैरयादव पिछड़ी जातियों को गोलबंद कर नीतीश कुमार ने अपनी अलग राजनीति की शुरुआत की थी, जबकि सवर्ण जातियों की लामबंदी भाजपा के साथ बनी। बाद में लालू विरोध के नाम दोनों एक हो गये और 2005 में जदयू की पालकी में सवार होकर नीतीश कुमार सत्ता में आये और भाजपा ने पालकी ढोने का जिम्मा उठाया। पिछले 15-16 वर्षों से भाजपा यही कर रही है। लेकिन जदयू की आंतरिक राजनीति में पार्टी की पहचान कोईरी-कुर्मी के साथ अतिपिछड़ों की रही। नीतीश कुमार की खुद की पहचान लव-कुश की रही है। व्यावहारिक रूप से कोईरी-कुर्मी ने यादव का डर दिखाकर गैरबनिया अतिपिछड़ी जातियों का भयादोहन किया है। इस भयादोहन में भाजपा ने भी उसका साथ दिया। भाजपा की सवर्ण लॉबी ने आक्रामक रूप से अतिपिछड़ों को भयाक्रांत किया। यादव, कोइरी और कुर्मी को छोड़ दें तो जदयू-भाजपा राज में अन्य ओबीसी जातियों की स्थिति 1990 के पहले के जातीय उन्माद वाली दौर में पहुंच गयी है।
अब जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह हैं। पहले से ही पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी (भूमिहार) बने हुए हैं। पार्टी लव-कुश की है, पालकी में कहार की भूमिका में लव-कुश और अतिपिछड़ी जातियां हैं और दूल्हा बन गये भूमिहार। एक कहावत बन गयी- लव-कुश की पालकी, जय बोलो भूमिहार की।
अति पिछड़ी जातियों की पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भूमिहार। बिहार के संदर्भ में बड़ा अटपटा लगता है। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। आरसीपी सिंह का पार्टी में महत्व बढ़े, ललन सिंह बराबर इसके खिलाफ रहे हैं। वे खुद के बराबर या खुद के नीचे ही आरसीपी को देखना चाहते हैं। 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में आरसीपी सिंह के शामिल होने की खबर के बाद ललन सिंह ने बगावत कर दी थी। इनके बगावत के बाद ही जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को सरकार में शामिल होने से रोक दिया था। शपथ ग्रहण के दिन दोपहर का भोज खाकर भी मंत्रीपद की शपथ नहीं ले पाये थे आरसीपी सिंह। 2021 में आरसीपी सिंह खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। इसलिए मुख्यमंत्री की इच्छा के विपरीत केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गये। इससे एक बार फिर नाराज हुए ललन सिंह ‘कोपभवन’ में चले गये। उनको मनाना जरूरी था। इसलिए आरसीपी सिंह से इस्तीफा दिलवाकर ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया।
अब सवाल इससे आगे का है कि क्या गैरयादव ओबीसी के राजनीतिक आधार वाले जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूमिहार का बनना सामाजिक न्याय के अवधारणा के साथ विश्वासघात नहीं है। सवर्णों के आंतक से निकलने या उसका जवाब देने के लिए ओबीसी जातियों ने सामाजिक न्याय आंदोलन के साथ अपनी ताकत बढ़ायी और सवर्णों की सत्ता को गांव-गांव तक चुनौती मिलने लगी। नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए पहले गैरयादव ओबीसी जातियों को सवर्णों के दालान में पहुंचाया। उनके अंदर स्वाभिमान की धधकती ज्वाला को शांत किया और सवर्णों की गुलामी के लिए तैयार किया। अब तो इस कुनबे की रखवाली का जिम्मा ही भूमिहार को सौंप दिया गया। जदयू के वैचारिक पराभव और सामाजिक गुलामी की यह पराकाष्ठा है। इससे सामाजिक न्याय आंदोलन को जबरदस्त झटका लगा है और इसका दूरगामी परिणाम सभी ओबीसी जातियों को झेलनी होगी।
वैसे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का इतिहास रहा है कि इस पद पर पहुंचे हर व्यक्ति राजनीतिक अंत की शुरुआत हो जाती है। समता पार्टी के जदयू में विलय के बाद जार्ज फर्नांडीस इसके अध्यक्ष बने। उनका राजनीतिक कैरियर इतना खराब हुआ कि उन्हें अंतिम चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ना पड़ा। इसके बाद अध्यक्ष बने शरद यादव। उन्हें भी राज्यसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी। फिर नीतीश कुमार खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और बिहार विधान सभा में जदयू तीसरे स्थान पर चली गयी। आरसीपी सिंह के अध्यक्ष बनने के आठवें महीने में इस्तीफा देने को विवश होना पड़ा। ललन सिंह किस गति को प्रदान करते हैं, इसका इंतजार करना चाहिए।