27 अगस्त का दिन। बिहार विधान सभा और विधान परिषद की संसदीय समितियों की बैठक निर्धारित थी। विधान सभा की 22 में से 20 कमेटियों की बैठक तय थी। सुबह 11 बजे से शाम 5.30 बजे तक विधायकों के आने-जाने का सिलसिला जारी था। हर समिति की बैठक के लिए समय तय होता है, लेकिन निर्धारित समय पर विधायकों की अपेक्षित उपस्थिति शायद ही होती है। इसलिए लोग इन समितियों की बैठक को दैनिक भत्ता के लिए ‘हस्ताक्षर अभियान’ की संज्ञा भी देते हैं।
समितियों की बैठक के दिन हम विधान सभा के गलियारों और समिति कक्षों में सक्रिय रहे। इस दौरान अनेक सदस्यों से मुलाकात हुई और विभिन्न मुद्दों पर चर्चा भी हुई। इसमें सभी धारा, पार्टी और जाति के विधायक या विधान पार्षद थे। सभी विधायक अपनी-अपनी धारा और पार्टी के हिसाब से राय रखते हैं। कई बार पार्टी से ज्यादा अपनी जाति के प्रति प्रतिबद्ध दिखने लगते हैं। शाम को करीब पौने छह बजे एक विधान पार्षद से मुलाकात हुई। चर्चा राजनीति पर शुरू हुई। नयी सरकार के गठन की संभावना पर भी चर्चा हुई।
उन विधान पार्षद से चर्चा के दौरान हमने कहा कि नीतीश कुमार फिलहाल चलती बैलगाड़ी में ‘बैल’ बदलने की स्थिति में नहीं हैं। गाड़ीवान की सीट को लेकर भाजपा और जदयू के बीच कोई मतभेद नहीं है। मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी जैसे लोग ‘स्टेपनी’ हैं। बिना हवा के टायर। गाड़ी में टंगे रह सकते हैं, उनके सहारे गाड़ी चलने वाली नहीं है। बात आगे बढ़ती जा रही थी। फिर बात नेता और नेतृत्व की आयी। हमने कहा कि फिलहाल नीतीश कुमार नेता हैं और उनके नेतृत्व पर कोई संकट भी नहीं है। राजनीति कभी ‘नेता विहीन’ नहीं होती है। नेतृत्व की शून्यता कभी नहीं होती है। जनता विधायक चुनती है। नेता का चुनाव का समय करता है। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लोकदल में अनेक वरिष्ठ नेता थे, जो उनका उत्तराधिकारी बन सकते हैं। लेकिन समय ने लालू यादव को चुना। 1995 के बाद कथित समाजवादियों में बिखराव शुरू हुआ तो लालू यादव का विकल्प का सवाल नहीं था। समय ने नीतीश कुमार को चुन लिया। वह समय ऐसा था कि लालू यादव विरोधियों की पसंद नीतीश कुमार बनते जा रहे थे। 2000 के विधान सभा चुनाव के बाद सरकार बनाने की बारी आयी तो राज्यपाल ने अपनी दलीय निष्ठा के हिसाब से 34 विधायक वाले समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, जबकि उससे लगभग दुगुनी संख्या वाली भाजपा समर्थन में खड़ी थी। 2005 में समय ने नीतीश कुमार को नेता के रूप में चुन लिया। फरवरी 2005 के चुनाव में भाजपा और जदयू को अहसास हो गया था कि अलग-अलग रह कर लालू यादव को पराजित करना आसान नहीं है। इसलिए नवंबर 2005 के चुनाव में भाजपा ने ही नीतीश कुमार को सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया और जीत हासिल की। उस दिन भी नीतीश कुमार जनता की पसंद नहीं थे, बल्कि समय की जरूरत थे। नीतीश को समय और परिस्थितियों ने चुना था। सवर्णों को लगा था कि लालू यादव को पराजित करने की औकात सवर्णों वाली पार्टी भाजपा की नहीं है तो कुर्मी जाति के नीतीश कुमार को नेता मान लिया। समय और परिस्थिति उनके अनुकूल थी।
बात को आगे बढ़ाते हुए हमने कहा कि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी के सामने ही उनके सहयोगी रहे नरेंद्र मोदी को पार्टी ने नेता चुन लिया था। क्योंकि उस दौर और परिस्थिति में लालकृष्ण आडवाणी अप्रासंगिक हो गये थे, जबकि नरेंद्र मोदी की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही थी। लालू यादव, नीतीश कुमार या नरेंद्र मोदी में से कोई भी विधायकों या सासंदों की पसंद नहीं थे। तीनों अपने-अपने समय में समय की जरूरत को पूरा कर रहे थे। इसलिए नेता मान लिये गये या बन गये। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की भूमिका विधायक या सांसद चुनने तक सीमिति है। नेता का चुनाव समय करता है, परिस्थितियां करती हैं।
फिर हम वापस बिहार पर लौटे। बिहार भाजपा में नंदकिशोर यादव या सुशील मोदी को जनता ने विधायक के रूप में चुना था, पार्टी का नेता उन्हें समय ने बनाया था। वह दौर ही ऐसा था कि भाजपा को सवर्णों की ‘राजनीतिक कब्र’ पर पिछड़ों को खड़ा करना था। और भाजपा ने यही किया। उस दौर में नेता का नाम कुछ भी होता, जातीय वर्ग तो उनका पिछड़ा ही होता। बात समाप्त करते हुए हमने कहा कि हर तीन साल पर 13 मंत्री बदल जाते हैं, क्योंकि उनका चयन या मनोनयन कोई व्यक्ति करता है। लेकिन नेता वर्षों तक जीवित रहते हैं, क्योंकि उनको समय चुनता है। इस श्रेणी में आप डॉ राममनोहर लोहिया, जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक नाम रख सकते हैं।