मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गृह जिला है नालंदा और उसी जिले के एक गांव का निवासी रणविजय यादव हैं। उनके पुत्र सोनू ने कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच मुख्यमंत्री के कारवां तक पहुंचा और अपनी बात मुख्यमंत्री के सामने रखी। उसने कहा कि वह आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है, लेकिन सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती है। उसने मुख्यमंत्री के सामने अपने सपने को बिछा दिया, लेकिन मुख्यमंत्री उसे सरकारी स्कूलों में बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का भरोसा नहीं दिला पाये।
करीब 8 साल पहले लौटते हैं 2014 में। पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में महिलाओं की सभा को मुख्यमंत्री संबोधित कर रहे थे। उस सभा में किसी महिला ने दारू बंदी की मांग की, तो उसी मंच से सीएम में घोषणा कर दी कि सत्ता में लौटे तो शराब बंदी लागू करेंगे। उन्होंने महिला को दिये वचन का पूरा किया और सत्ता में लौटने के बाद 2016 से बिहार में शराबबंदी लागू है। और इसके बाद से नीतीश कुमार उसी दारूबंदी की राजनीति कर रहे हैं।
अब हम फिर नांलदा के हरनौत चलते हैं। सोनू ने कहा कि पिता की कमाई दारू में चली जाती है। मतलब दारूबंदी का सच सामने गया है। सवाल इससे आगे का है। मुख्यमंत्री एक महिला की मांग पर दारूबंदी की घोषणा करते हैं, लेकिन एक छात्र की मांग पर स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण और बेहतर शिक्षा की घोषणा का साहस नहीं जुटा पाते हैं। छात्र की पीड़ा से उनका मन नहीं पसीजता है।
अंतरात्मा की आवाज सुनने वाले नीतीश कुमार की अतंरात्मा सोनू के आवाज क्यों सुन पाती है। इसलिए कि बेहतर और गुणवत्तापूर्ण से वोट नहीं मिलता है। शिक्षा का पोलिटिकल मार्केट नहीं है, दारू की तरह इसका बाजार नहीं है।
मुख्यमंत्री ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए नगर निकायों में चुनाव लड़ने के लिए दो बच्चों की बंदिश लगा दी है। मतलब दो अधिक बच्चे वाले चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। क्या नीतीश कुमार यह कानून नहीं बना सकते हैं कि संसद, विधान मंडल या स्थानीय निकाय के लिए चुनाव लड़ने वाले व्यक्तियों के बच्चे सरकारी स्कूल में जरूर पढ़ें। जिनके बच्चे या नाती-पोते सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे, वे चुनाव के अयोग्य होंगे। इसका भी सकारात्मक असर पड़ेगा और सरकारी स्कूलों में शिक्षा की हालत सुधेरगी।