आज हम दो बैलों की कथा सुनाते हैं। एक बैल हरे रंग वाला है और दूसरा भगवा रंग वाला। दोनों रंगों की अपनी विशेषता है। बिहार में एक सरकार नाम की गाड़ी है, जो इन्हीं दो बैलों के कंधों पर चल रही है। इस पर बैठा गाड़ीवान हरे रंग की पगड़ी में है। गाड़ी पर सवार लोग हरे और भगवा दोनों रंग की पगड़ी वाले हैं। हालांकि इस भीड़ में हरे रंग से लगभग दुगुना भगवा रंग वाले हैं। लेकिन सवाल यह है कि गाड़ीवान कौन है।
बैलों को अपने-अपने रंग का गुमान है। हरा रंग वाला कहता है कि गाड़ीवान हमारा है, जबकि भगवा रंग वाला मानता है कि सवारी हमारी है। बैलों की नियति है कि वे गाड़ी खींच रहे हैं। क्योंकि उनका दाना-पानी गाड़ी खींचने पर निर्भर है। बैलों में भी आपसी खींचतान है, लेकिन गाड़ी खींचने पर आम सहमति है। क्योंकिे गाड़ीवान के प्रति दोनों की आस्था है। बैलों का मानना है कि गाड़ी पड़ाव तक नहीं पहुंची तो मलाई हाथ से निकल जायेगी। यही विवशता दोनों को संगी-साथी बनाये हुए है।
लेकिन इस पर बैठी सवारी रंग-रंग का खेल-खेल रही है। दोनों के बीच ‘लतमारी-लतखोरी’ का खेल चल रहा है। दोनों रंगों के अपने-अपने नेता हैं। ‘लतमारी-लतखोरी’ पर अपनी-अपनी गलथेथरी ठोक रहे हैं। गाड़ीवान भी सवारी के मथफूटवल से अवगत है। मंद-मंद मुस्करा कर बैलों को टीटकार रहा है। बैल भी जोश के साथ दौड़ रहे हैं। बैलों के गले में बंधी सुशासन की घंटी भी खूब बज रही है। गाड़ी का माहौल ‘बैसाख का गधा’ और ‘सावन के अंधे’ की तरह हो गया है। दोनों आत्ममुग्ध। गाड़ीवान इस आत्ममुग्धता से अवगत है। वह मानता है कि हरी पगड़ी वाला सवारी लंगड़ा है और भगवा पगड़ी वाला अंधा। दोनों एक-दूसरे की मजबूरी हैं। दोनों को अपनी औकात पता है। इसलिए गाड़ी से उतरने या उतारने का जोखिम कोई नहीं ले सकता है। सवारियों की इसी मजबूरी का आनंद गाड़ीवान और दोनों बैल उठा रहे हैं। यही तीन प्राणी सरकार यात्रा का आनंद उठा रहे हैं, बाकी इस गाड़ी पर सवार हर व्यक्ति ‘गधे और अंधे’ से बंधी अपनी किस्मत पर रो रहा है।
do bailon ki katha sunate hain