तेजस्वी यादव ने बुधवार को दूसरी बार उपमुख्यमंत्री की शपथ ली। लगभग पांच साल के अंतराल के बाद सत्ता में लौटे हैं। नेता प्रतिपक्ष के रूप में उन्होंने एक आक्रामक छवि गढ़ने की कोशिश की और कई बार सदन में मुख्यमंत्री पर भारी पड़ते दिखे। एक बार तो तेजस्वी के हमले से परेशान मुख्यमंत्री सदन में ही आपा खो बैठे थे। उस दिन के मुख्यमंत्री के भाषण को सदन की कार्यवाही से निकालना पड़ा था।
लेकिन नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव यानी चाचा-भतीजा की नयी सरकार फिर पटरी पर आ गयी है। शपथ ग्रहण के बाद चाचा-भतीजा के कैबिनेट की बैठक भी हुई। इसी बैठक में 24 और 25 अगस्त को विधानमंडल की बैठक बुलाने का निर्णय भी लिया गया।
निश्चित रूप से तेजस्वी यादव आज पांच पहले वाले तेजस्वी यादव नहीं हैं। सात साल की राजनीतिक यात्रा में अनुभवों के कई पड़ाव से गुजर चुके हैं। राजनीतिक दुश्वारियों को करीब से देखा और झेला है। लेकिन वे जिस जाति के आधार के बल पर राजनीति कर रहे हैं, उसके मनोविज्ञान को समझना भी अब उनके जरूरी हो गया है। हम यादव जाति की बात कर रहे हैं।
पिछले 17 वर्षों के नीतीश राज में मुख्यमंत्री सचिवालय में एक भी यादव आईएएस या बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी की तैनाती नहीं हुई है। जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्रित्व काल में एक यादव आइएएस को मुख्यमंत्री का सचिव बनाया गया था, लेकिन फरवरी, 2015 में सत्ता में लौटने के बाद नीतीश कुमार ने सबसे पहले उन्हें सीएमओ से हटाया था। 2017 में राजद का साथ छूटने के अगले दिन ही सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में निदेशक पद से एक यादव अधिकारी को हटा दिया गया था। नीतीश राज में जिस तरह से यादव प्रशासनिक अधिकारियों के साथ भेदभाव किया गया, वह नयी सरकार के लिए चुनौती है। तेजस्वी यादव के लिए यह चुनौती है कि सरकार के निर्णय और उसके कार्यान्वयन प्रक्रिया के प्रभावित करने वाले पदों पर यादव अधिकारियों को तैनाती सुनिश्चित करें।
यादव समाज के 80 फीसदी लोग आज भी लालू यादव में आस्था रखते हैं और राजद के प्रति ईमानदारी से जुड़े हुए हैं। वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें सत्ता के लाभ या हानि की समझ नहीं है। वे जाति के नाम पर राजद के साथ हैं। लेकिन यादव की 20 फीसदी आबादी सत्ता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ उठा चुकी है। यह यादव जाति का वही हिस्सा है, जो परसेप्शन बनता है। इसमें सरकारी सेवक, प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग और राजनीतिक कार्यकर्ता या पदधारक हैं। वे राजद के साथ इसलिए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि राजद सत्ता में आयेगा तो उसका लाभ भी मिलेगा। इस वर्ग की आस्था या निष्ठा राजद के प्रति है, लेकिन सत्ता की संभावना या लाभ भाजपा में दिखती है, तो उसे बीजेपी से परहेज नहीं है। तेजस्वी यादव को सबसे बड़ा खतरा इसी समूह से है। भाजपा का टारगेट भी इसी समूह को जोड़ने या फोड़ने का है। भाजपा दावा करती है कि यादव का वोट उसे भी मिलता है तो उसका आशय इसी वोट से होता है। जिन सीटों पर भाजपा का यादव उम्मीदवार होता है, वहां यादव खुले मन से भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है, बशर्ते राजद का यादव नहीं हो। हम राजद के सहयोगी की बात नहीं कर रहे हैं।
नये सत्ता समीकरण में यादव वोटों को बांधे रखना तेजस्वी यादव के लिए चुनौती है तो भाजपा का लक्ष्य भी यादव वोटों में सेंधमारी करना है। भाजपा यादव वोटों के बिना तेजस्वी यादव को चुनौती नहीं दे सकती है और तेजस्वी यादव यादव वोटों को सहेजे बिना लंबी पारी नहीं खेल सकते हैं। बिहार की राजनीतिक जमीन पर जदयू धीरे-धीरे अप्रासंगिक होता जा रहा है।
2017 में तेजस्वी यादव सत्ता से हट गये थे। यादवों को बड़ा अफसोस था। लोग हमसे भी चिंता साझा करते थे। वैसे लोगों से हम पूछते थे कि तेजस्वी के सत्ता में रहते आपको लाभ क्या मिल रहा था और सत्ता में नहीं रहने से हानि क्या हो रही है। इसका जबाव जाति सत्ता में उलझ कर रह जाता था। अब उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को बताना होगा कि उनके सत्ता में रहते यादव जाति को लाभ क्या-क्या मिल रहा है।