साथियों, वीरेंद्र यादव न्यूज। यह न्यूज ब्रेक करने में विश्वास नहीं करता है, बल्कि अवधारणा तोड़ने में भरोसा करता है। इसलिए खबरों की भीड़ में भीड़ से अलग है। कभी आठ तो कभी 16 पन्नों की पत्रिका। बात रखने का देसी अंदाज। न किसी के साथ में, न किसी के खिलाफ में। अपने तथ्यों के साथ, अपनी खबरों के साथ लाठी लेकर तैयार। यह भी बड़ी विडंबना है कि हर नेता वीरेंद्र यादव न्यूज को अपना विरोधी मानता है, कुछ दुश्मन भी मानने लगे हैं। यह पाठकीय स्वतंत्रता है कि वह हमें किस रूप में देखते हैं।
हमारे लिए खबर सर्वोपरि है। जाति का बंधन न पार्टी की सीमा। वीरेंद्र यादव न्यूज खबरों की नहीं, विचार की पत्रिका है। विचार को स्थापित करने के लिए खबरों का सहारा लेना पड़ता है, तथ्यों को सामने रखना पड़ता है। हमारी हर कवर स्टोरी खास होती है, तथ्यों के आधार पर भी है और विचार के आधार पर भी। यही कारण है कि वीरेंद्र यादव न्यूज को दुश्मन मानने वाले भी आंकड़ों और तथ्यों को नकार नहीं पाते हैं। यही इस पत्रिका की ताकत है।
हमने सामाजिक या राजनीतिक घटनाओं को लेकर स्थापित अवधारणाओं को तोड़ने का प्रयास किया है, लोगों का नजरिया बदलने का प्रयास किया है। नजर बदलिये, नजारे बदल जाएंगे। राजनीति में जाति को जड़ माना जाता है, हमने जड़ता तोड़ने की कोशिश की है। जाति धारा नहीं है कि दो धारणाओं के बीच प्रवाहित होती रहती है। राजनीतिक चेतना बाढ़ है, जो धारणाओं को रौंद डालती है। आजादी के बाद से ही आप देख सकते हैं। हर चुनाव में पार्टी और जाति का अंतर्संबंध बदलता रहा है। डॉ लोहिया का समाजवादी आंदोलन पिछड़ों की गोद में पला-बढ़ा और पिछड़ों की राजनीतिक आकांक्षाओं का प्रतिबिंब भी बना। लेकिन उन्हीं पिछड़ों ने समाजवाद की अंतिम यात्रा भी अपने ही कंधों पर निकाली। कांग्रेस को ब्राह्मण, मुसलमान और दलितों की पार्टी माना जाता था, लंबे तक कांग्रेस इसी समीकरण के सहारे राजनीति करती रही, आज उसके साथ कोई नहीं है। भाजपा को ब्राह्मण-बनिया की पार्टी माना जाता था। बाद में सवर्ण का झुकाव भाजपा की ओर हुआ और अब पिछड़ी जातियों के बीच भाजपा तेजी से अपना पैठ बना रही है। क्षेत्रीय पार्टियां एक व्यक्ति, परिवार और जाति की पार्टी में तब्दील होती जा रही हैं। मतलब जाति का कायांतर हो रहा है, कायाकल्प हो रहा है।
हमने जाति के बदलते स्वरूप, भूमिका और प्रभाव को समझने के लिए जाति को अपना विषय बनाया। जाति हमारा सब्जेक्ट है, सेंटीमेंट नहीं। पत्रकारिता में जाति एक विषय हो सकता है, इसे हमने स्थापित किया। अब मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक की जाति गिनी जा रही है। अब सरकार स्वयं व्यक्ति-व्यक्ति की जाति गिन रही है।
हमने अपनी बात की शुरुआत अवधारणा को तोड़ने से की थी। हमने कई अवधारणाओं को तोड़ा और उसे नये परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की। हमारा मानना है कि सवर्ण को आरक्षण देकर भाजपा की सरकार ने सबसे बड़ा नुकसान किया है, उस जाति समूह को बौद्धिक अपाहिज बना दिया है। विभिन्न परीक्षाओं के रिजल्ट बता रहे हैं कि सवर्णों की बौद्धिक क्षमता अन्य तथाकथित कमजोर जातियों से भी कम है। और भी ऐसे कई अवधारणाएं है, जिसे वीरेंद्र यादव न्यूज के माध्यम से हमने तोड़ा है।
स्थापित धारणाओं को तोड़ने का सिलसिला जारी रहेगा। पत्रकारिता हमारे लिए सरोकार है, कारोबार भी है। पत्रकारिता अकेले न सरोकार हो सकता है, न कारोबार हो सकता है। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। संपादक की जिम्मेवारी अब खबरों की कम, बिजनेस की ज्यादा हो गयी है। वैसे दौर में वैचारिक पत्रिका निकालना एक चुनौती है। इस चुनौती का मुकाबला हम अपने पाठकों की ताकत के सहारे कर रहे हैं। पाठकों से मिलने वाली आर्थिक सहायता ही पत्रिका का संबल है। अब पाठकों की ओर से विज्ञापन भी मिलने लगा है। यह विज्ञापन भी सहयोग स्वरूप ही होता है।
अंत में, एक बार फिर हम अपने पाठकों से पत्रिका के निर्बाध प्रकाशन के लिए आर्थिक सहयोग की अपील करते हैं। वे आर्थिक सहयोग विज्ञापन या अनुदान के रूप में कर सकते हैं। यह सहयोग नकद, ऑनलाइन या चेक भी कर सकते हैं। धन्यवाद।