परिसीमन अधिनियम 2002 के आधार पर लोकसभा और विधान सभाओं का नये सिरे से परिसीमन किया गया। इसके पहले परिसीमन अधिनियम 1952, 1962 और 1972 के प्रावधान के अनुसार क्रमश: 1952, 1963 और 1973 में लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन हुआ था।
वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत की पुस्तक ‘बिहार में परिसीमन’ के अनुसार, संविधान के 42वां संशोधन में कहा गया था कि अगला परिसीमन 2001 की जनगणना के बाद किया जाएगा। इसी आलोक में 2001 की जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम 2002 बना। इसी के आधार पर लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन हुआ। परिसीमन आयोग का गठन 12 जुलाई, 2002 को किया गया और इसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश कुलदीप सिंह थे। दिसंबर, 2007 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। केंद्र सरकार ने 4 जनवरी, 2008 को आयोग की अनुशंसा को मंजूर कर लिया। नये परिसीमन के आधार पर पहला चुनाव मई, 2008 में कनार्टक में हुआ, जबकि लोकसभा का पहला चुनाव मई, 2009 को हुआ। नये परिसीमन के आधार पर बिहार विधान सभा का पहला चुनाव नंवबर, 2010 में हुआ था।
परिसीमन आयोग का गठन केंद्र सरकार करती है। आयोग राज्य विशेष में पंचायत या नगर निकायों की सीमा और जनसंख्या के आधार विधान सभा क्षेत्र का गठन करता है। विधान सभा क्षेत्रों की जनसंख्या के आधार पर लोकसभा क्षेत्रों की सीमा निर्धारित होती है। इसलिए किसी विधान सभा क्षेत्र में कुछ प्रखंड के साथ किसी प्रखंड की कुछ पंचायत या नगर निकायों के कुछ वार्डों का भी शामिल किया हुआ मिल जाता है। इसकी वजह है कि विधान सभा क्षेत्र विशेष की जनसंख्या समानुपातिक रखा जा सके।
परिसीमन का असर हम बिहार के संदर्भ में देंखे तो हर परिसीमन के बाद बिहार का राजनीतिक चरित्र बदल जाता है। 1952 में पहला चुनाव हुआ था। दूसरा परिसीमन 1963 में हुआ और अगले विधान सभा चुनाव 1967 में गैरकांग्रेस दलों की संविद सरकार बनी। 1973 में परिसीमन हुआ और 1977 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया। 2008 में परिसीमन हुआ और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन अप्रत्याशित जीत मिली। इसी प्रकार 2010 के विधान सभा चुनाव में एनडीए को अभूतपर्वू सफलता हासिल हुई और राजद 22 सीटों पर सिमट गया।
2008 के परिसीमन के बाद बिहार में भाजपा लगातार ताकतवर होती गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में बिना जदयू के भी भाजपा ने अन्य दलों के साथ गठबंधन बनाकर 80 फीसदी सीटों पर कब्जा करने में सफल रही थी। 2015 के विधान सभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और जदयू एक साथ थे। इसके बावजूद भाजपा को सीटों का नुकसान भले उठाना पड़ा हो, वोट प्रतिशत के हिसाब से महागठबंधन और एनडीए के बीच सिर्फ 8 फीसदी का अंतर था। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने कोटे की सभी 17 सीटों को जीतने में सफल रही, जबकि एनडीए के रूप में उसने 40 में से 39 सीटों पर कब्जा कर लिया। 2020 के चुनाव में भाजपा ने अपने ही सहयोगी जदयू पर लगभग दुगुनी पर बढ़त लेकर दूसरे सबसे बड़ी पार्टी बन गयी। दरअसल परिसीमन के बाद बिहार का राजनीतिक चरित्र पूरी तरह बदल गया है। पार्टियां का चरित्र भी बदला है और उनकी कार्यशैली भी बदली है। पार्टियों के आधार में तेजी से बदलाव हो रहा है। इस बदलाव को भाजपा जिस तेजी से अंगीकार और स्वीकार कर रही है, वह गतिशीलता राजद या जदयू में देखने को नहीं मिल रही है। महागठबंधन के वोट दरकने की आशंका लगातार बढ़ती जा रही है। इसको लेकर महागठबंधन के नेताओं को सचेत रहने की जरूरत है और रणनीति पर नये सिरे से मंथन करना चाहिए। अन्यथा महागठबंधन अपने ही बोझ से दबी अपनी नाव को नहीं बचा पायेगा।