जीवेश कुमार मिश्र। पहली बार 2015 में विधायक बने थे और 2020 में दुबारा चुने गये। दरभंगा जिले के जाले से भाजपा के विधायक हैं। 2020 में नीतीश सरकार में भाजपा कोटे से मंत्री भी थे। श्रम संसाधन मंत्री। फिलहाल पार्टी की ओर से मिली जिम्मेवारियों का निर्वाह कर रहे हैं।
उन्होंने 1989 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथ राजनीति की ओर कदम बढ़ाया था। 1992 में राममंदिर आंदोलन में काफी सक्रिय रहे। 1998 में भाजपा की सदस्यता ली और 2002 में सक्रिय सदस्य बने। इसके बाद जिला और राज्य स्तरीय संगठन में कई दायित्वों का निर्वाह करते हुए 2015 में विधायक बने। राममंदिर आंदोलन से राजनीति में कदमताल करते हुए लोकतंत्र के मंदिर विधान सभा में पहुंचकर एक पड़ाव हासिल की। यात्रा अभी जारी है।
गैरराजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से राजनीति में आये जीवेश मिश्रा शासन के बदलते स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि लालू प्रसाद के शासन काल में जनप्रतिनिधियों का सम्मान था, अधिकारी सम्मान देते थे। उद्घाटन और शिलान्यास के शिलापट्टा पर सांसद-विधायकों का नाम भी प्रमुखता से रहता था। लेकिन नीतीश कुमार के राज में सबकुछ बदल गया है। सत्ता व्यक्ति केंद्रित हो गयी है। नीतीश कुमार ही सत्ता के स्रोत बन गये हैं, पावरहाउस। पूरा प्रशासनिक तंत्र मुख्यमंत्री कार्यालय के प्रति जवाबदेह हो गया है। प्रशासनिक तंत्र की जनता के प्रति जवाबदेही खत्म हो गयी है। नीतीश कुमार की सरकार भाजपा के साथ चल रही हो या राजद के साथ, कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं आता है। सीएमओ सत्ता का केंद्र बन गया है। अब मुख्यमंत्री पटना में बैठकर ही सभी योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास कर रहे हैं। वैसी स्थिति में सांसद और विधायक की भूमिका उद्घाटन और शिलान्यास में भी समाप्त हो गयी है। श्री मिश्रा कहते हैं कि इसका विकास कार्यों पर विपरीत असर पड़ रहा है और विकास की गति धीमी हुई है।
पिछले 35-40 साल में आये बदलाव को लेकर जीवेश मिश्रा कहते हैं कि 1990 में बिहार में रोजगार और पढ़ाई सीमित अवसर थे। इंजीनियरिंग, मेडिकल, पोलिटेक्निक आदि ही पढ़ाई के विकल्प थे। बेहतर शैक्षणिक संस्थान भी नहीं थे। जातीय तनाव का दौर था। 2000 आते-आते युवाओं की आकांक्षा बदलने लगी थी। वे बेहतर शिक्षा के लिए दूसरे राज्यों और औद्योगिक शहरों में पलायन करने लगे थे। रोजगार के लिए पलायन पहले से जारी था, लेकिन शिक्षा के लिए पलायन 2000 के आसपास शुरू हुआ। राजनीति में भी बदलाव की इच्छा जोड़ पकड़ने लगी। लालू प्रसाद-राबड़ी देवी की सरकार निराशा का पर्याय बन गयी थी। इसी हताशे के बीच सरकार बदलने का आंदोलन तेज हुआ। राजनीतिक बदलाव के लिए नयी-नयी शक्तियों का उदय हुआ। बदलाव की इच्छा इतनी बलवती थी कि फरवरी 2005 के चुनाव में रामविलास पासवान की पार्टी को भी 30 सीट मिल गयी थी।
वे कहते हैं कि 2005 आते-आते एक नया बिहार का सपना आकार लेने लगा था। लालू-राबड़ी राज से उबे लोग नया विकल्प के लिए बेचैन थे। उसी दौर में भाजपा ने नीतीश कुमार का नेतृत्व स्वीकार कर नयी सरकार का मार्ग प्रशस्त किया और 2005 में एनडीए की पहली सरकार बनी। नीतीश सरकार का पहला कार्यकाल सुशासन, सड़क, बिजली जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने के रूप जाना जाता है। लेकिन 2010 चुनाव में एनडीए को भारी सफलता मिली। इसे नीतीश कुमार ने अपनी सफलता मान ली थी। यहीं से नीतीश कुमार आत्ममुग्धता के शिकार हुए और फिर कोई भी गठबंधन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। राजनीतिक अस्थिरता का यह दौर बिहार के लिए निराशाजनक है और इस दौर में लोकशाही ने नौकरशाही के सामने घुटने टेक दिये। यही नीतीश कुमार की सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता रही और प्रशासनिक अराजकता की वजह भी। पंचायती राज व्यवस्था को लेकर उन्होंने कहा कि इससे सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है। छोटे स्तर पर नेतृत्व का उभार शुरू हुआ है। लेकिन भ्रष्टाचार स्थानीय निकायों में भी जुड़ जमा चुका है। इससे मुक्ति की राह सरकार को निकालना चाहिए।