‘समाज में, छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों तक में विविध जातियों और सम्प्रदायों की संस्कृति समेकित जीवन का हिस्सा हुआ करती थी, यह सब रोजमर्रा के जीवन में शामिल था। ग्रामीण जीवन में व्यवहार, रंग राग में लिंग भेद नहीं होता था। आज यह सब खत्म हो रहा है, सांस्कृतिक बहुकलता और समेकित सामुदायिक रिश्तों पर संकट है।’ ये बातें बिहार विधान परिषद के सभापति रामचंद्र पूर्वे ने परिषद के सभागार में आयोजित ‘साहित्य का जनतंत्र व जनतंत्र का साहित्य’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में कही।
संविधान निर्माण के 73 साल और स्त्रीकाल पत्रिका के 20 साल के अवसर पर 30 नवंबर को हुई इस संगोष्ठी का उद्घाटन रामचंद्र पूर्वे ने किया तथा अध्यक्षता बिहार विधान परिषद के सदस्य व साहित्यकार प्रो. रामवचन राय ने की।
इस संगोष्ठी के दो सत्र क्रमशः हंस के संस्थापक सम्पादक राजेंद्र यादव और संस्कृति कर्मी और विश्लेषक रहीं सुजाता पारमिता की स्मृति में संयोजित किये गए थे। संगोष्ठी की शुरुआत अतिथियों को संविधान की प्रतियां देकर की गयीं। तिब्बत से आये सांसदों, वेनेरेबल कुंगा सोटोप और तेनजिन जिगडल को रामचंद्र पूर्वे और साहित्यकार व पूर्व विधान पार्षद प्रेमकुमार मणि ने भारत के संविधान की प्रतियां भेट की।
प्रेमकुमार मणि ने साहित्य में जनतंत्र पर बात करते हुए कहा कि साहित्यकार हमेशा पीड़ित अस्मिता के साथ खड़ा होता है। वाल्मीकि की पक्षधरता सीता के साथ है और वे राम के साथ अपने तरह का काव्यात्मक न्याय करते हैं। महाभारत में भी ऐसा ही न्याय है। उन्होंने कहा कि बौद्धों ने अश्वघोष के बाद संस्कृत को अपनाना शुरू कर दिया, संस्कृत को भी बदला और जिसकी परिणति हुई कि संस्कृत में गीत गोविंद जैसी रचना हुई। उन्होंने लोहिया के एक कथन की याद दिलाई ‘ जो लिख रहे हैं उन्होंने पीड़ा नहीं भोगी और जिन्होंने पीड़ा भोगी वे लिख नहीं रहे हैं।’
अध्यक्षीय भाषण में प्रो रामवचन राय ने कहा, ‘ साहित्य में दो तरह की परम्परा है। राजन्य और श्रमण संस्कृतियां हैं। श्रमण संस्कृति की परम्परा वाल्मीकि, कबीर, रैदास की परम्परा है, जो धर्मवीर भारती और आगे आती है और दूसरी राजन्य परम्परा जो वशिष्ठ से लेकर आज के वर्चस्ववादी लेखकों तक जाती है। श्रमण परम्परा ही जनतंत्र की परम्परा है।
कार्यक्रम का प्रस्ताव रखते हुए स्त्रीकाल के संपादक ने संजीव चन्दन ने बताया कि, ‘स्त्रीकाल का 20वां साल स्त्रियों की हिस्सेधारी थीम पर आधारित मनाया जा रहा है। संस्थाओं, संस्थानों, संसाधनों में हिस्सेदारी। आधी आबादी, आधा हिस्सा हमारा_जाति और जेंडर संबंध को ध्यान में रखकर। पहला हक हाशिए का। उसी सिलसिले में यह एक आयोजन है। पिछले दिनों वरिष्ठ साहित्यकार उर्मिला पवार और सुशीला पवार की अध्यक्षता में हुई एक बैठक के साथ पारित प्रस्तावों का ‘महिला घोषणा पत्र’ स्त्रीकाल द्वारा कई राजनीतिक दलों के नेताओं को सौंपा जा रहा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे, सीपी आई के महासचिव डी राजा सहित अनेक नेताओं को सौंपा गया है। यह प्रस्ताव बिहार के विविध राजनीतिक संगठनों को भी पेश किया गया।
संगोष्ठी में कांग्रेस की विधायक प्रतिमा दास, बनारस के महिला महाविद्यालयों के प्रोफेसर सूचित वर्मा, कमलेश वर्मा, संस्कृति विश्लेषक अशोक सिन्हा, युवा आलोचक मो. दानिश, परिसंघ के महासचिव ओम सुधा, युवा साहित्यकार प्रीति प्रकाश, बिहार के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आये प्राध्यापकों, (शिप्रा प्रभा,मगध महिला महाविद्यालय), कंचन (बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर), शिवेंद्र कुमार मौर्य ( बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर), नम्रता कुमारी ( एस एस कॉलेज, जहानाबाद ), डाक्टर मुसर्रत जहाँ ( वैशाली ) और शोधार्थी समीर ने साहित्य और संस्कृति के विविध पक्षों पर बात की। सुजाता पारमिता की बेटी ने लंदन से ऑनलाइन सुजाता पारमिता के योगदानों पर तथा शोधार्थी ने राजेंद्र यादव के योगदानों पर बात की। मंच संचालन शोधार्थी पूजा कुमारी, निशा कुमारी ने की।
श्रोताओं में प्रमुख लोगों में पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान, गांधी पीस फॉउंडेशन के पूर्व सचिव सुरेंद्र जी, विधायक इंजीनियर ललन कुमार, साहित्यकार मुसाफिर बैठा, अरुण नारायण, विनोद पाल, इरफ़ान सहित विभिन महाविद्यालयों के प्राध्यापक, एक्टिविस्ट और विद्यार्थी थे। महिलाओं की संख्या दो तिहाई थी।