बिहार के सभी 40 सांसदों के भाग्य की उलटी गिनती शुरू हो गयी है। इनका कार्यकाल अब 6 महीने से भी कम बच गया है। सभी सांसदों की धड़कन बढ़ गयी है। टिकट बचेगी या जाएगी। लोजपा के टिकट पर निर्वाचित सांसद अपने लिए नये-नये आशियाना तलाश रहे हैं। जदयू के सांसदों की धड़कन ज्यादा तेज हो गयी है। गठबंधन में कौन-सी सीट किस कोटे में जाएगी, यह तय नहीं है। उनकी सीट बचेगी या सहयोगियों की गिफ्ट कर दी जाएगी, यह भी बड़ा संशय है। इसलिए जदयू के सभी सांसद सहमे हुए हैं। कांग्रेस की एकमात्र किशनगंज सीट को लेकर फिलहाल कोई संशय नहीं है। वर्तमान में महागठबंधन कोटे की किशनगंज सीट ही निर्विवाद है।
भाजपा के सूत्रों की माने तो सभी सांसदों को अभयदान दे दिया गया है। उन्हें चुनाव की तैयारी के निर्देश भी मिल गये हैं। 17 में से एकाध सांसदों की किस्मत ही खराब हुई तो बेटिकट होंगे, अन्यथा फिर से सबको टिकट मिलना तय हो गया है। इसके पीछे का सबसे बड़ा तर्क है कि महागठबंधन के साथ कांटे का मुकाबला होगा। ऐसे में सीटिंग का टिकट काटकर नये उम्मीदवार उतारने का जोखिम भाजपा नहीं लेना चाहती है। इसलिए वर्तमान 17 सीटों पर भाजपा नये उम्मीदवार को लेकर कोई होमवर्क नहीं कर रही है। अंतिम समय में एकदम अप्रत्याशित हुआ तो फिर पार्टी कोई क्राइसीस मैनेजमेंट करेगी।
शेष 23 सीटों पर भाजपा जमकर होमवर्क कर रही है। उम्मीदवार चयन को लेकर संगठन से लेकर विधायकों के साथ भी मंथन कर रही है। रामविलास पासवान के कुनबे वाली 6 सीटों पर भाजपा नये तरह से विचार कर रही है। समस्तीपुर, हाजीपुर और जमुई सीट उनके ही जिम्मे छोड़ देगी। इसके अलावा नवादा के सांसद ही भाजपा खेमे में रहेंगे। वैशाली और खगडि़या के सांसदों ने अलग राह पकड़ ली है। इस बार भी भाजपा पासवान कुनबे को 6 सीट देगी। तीनों रिजर्व सीट कंफर्म है, लेकिन तीन अन्य सीटों पर फैसला अंतिम समय पर होगा। उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी भाजपा का गमछा ओढ़कर चुनाव में उतरना चाहेंगे तो तीनों को एक-एक सीट पर संतोष करना पड़ेगा। इन तीनों को इससे ज्यादा चाहिए ही नहीं। एक कहावत है न, अंधे को क्या चाहिए, एक आंख।
जदयू के सोलह सांसदों की बात करें तो सबकी संभावनाओं पर तलवार लटक रही है। कई सांसदों ने अपने सुर भी बदल दिये हैं। जदयू के अनेक सांसदों को भाजपा से कोई परहेज भी नहीं है। भाजपा ने जदयू के वर्तमान सांसदों के लिए दरवाजा खोलकर रखा है। वैसे माना जा रहा है कि जदयू कम से कम आधे सांसदों को विभिन्न कारणों से पैदल कर सकती है। यह जदयू की राजनीतिक मजबूरी भी है और महागठबंधन की जरूरत भी।
किसी भी पार्टी का कोई भी नेता अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए किसी भी सांसद या विधायक की बलि चढ़ाने से कभी परहेज नहीं करता है। बलि का सिलसिला चुनाव के समय में बढ़ जाता है। चुनाव के साथ नेता का भविष्य और संभावना जुड़ी हुई हो तो बलि को वरदान समझ लिया जाता है। चुनाव जब दरवाजे पर खड़ा है तो वरदान के लिए हर नेता लालायित है। इसके लिए किसी की भी बलि चढ़ायी जा सकती हैै।