बिहार की राजनीति में पलटीराम एक मुहावरा बन गया है। धीरे-धीरे पलटीमार शब्द गाली की जगह लेने लगा है। हालांकि राजनीति में पलटीमारी की लंबी कहानी है। एक बार चलते सदन में ही एक विधायक सत्ता पक्ष से उठकर विपक्ष की ओर आकर बैठ गये और विपक्ष में शामिल हो गये। विधायकों पर नियंत्रण रखने के लिए दल बदल विरोधी कानून लाया गया तो पार्टियों ने पलटी मारना शुरू कर दिया। अब तो कुछ मिनटों में ही सत्ता में शामिल पार्टी विपक्ष हो जाती है और विपक्ष में बैठा दल सत्ता पक्ष का हिस्सा हो जाता है, सरकार में शामिल हो जाता है। केंद्र की राजनीति में भी यही होता है। इसमें में नीति, सिद्धांत या राजनीतिक मर्यादा का कोई बंधन नहीं होता है। इससे पार्टी के नेता विशेष का राजनीतिक हित बंधा होता है। लेकिन आज हम राजनीति की बात नहीं करेंगे।
तीन चरवाहे थे। मान लीजिए उनका नाम नीलेश, सुबोध और लालदेव था। नाम आप अपनी सुविधा के अनुसार बदल सकते हैं, जैसे पार्टियां अपनी सुविधा के अनुसार आस्था बदल लेती हैं। तीनों चरवाहे अच्छे दोस्त थे। तीनों हमउम्र थे और तीनों ने चरवाही की शुरुआत भी एक ही साथ की थी। जैसे-जैसे बड़े होते गए उनका खटाल का आकार और प्रभाव भी बड़ा होता गया। एक बार एक मिठाई का व्यापारी यानी हलवाई ने अपनी दुकान उसी इलाके में खोली। उसे दूध की जरूरत थी। उसने तीनों चरवाहों से संपर्क साधा। लेकिन एक शर्त्त भी जोड़ दी। उसने कहा कि हमें हर दिन 243 किलो दूध की जरूरत है, लेकिन जो 122 किलो दूध की गारंटी देगा, उसी से दूध खरीदेंगे। तीनों में से किसी चरवाहे के पास अकेले 122 किलो की क्षमता नहीं थी। उस सयम नीलेश के पास सबसे ज्यादा दूध की क्षमता थी, लेकिन 122 किलो तक पहुंच नहीं पा रहा था। उसने हलवाई से संपर्क साधा और 122 किलो से अधिक दूध देने सौदा तय कर लिया। उसने सुबोध के साथ साझेदारी करके दूध की सप्ताई शुरू कर दी। आखिर सुबोध भी चरवाहा ही था। उसने अपना दूध का व्यवसाय बढ़ाने के लिए नीलेश के खटाल को उखाड़ने की साजिश की। इससे नाराज नीलेश ने लालदेव के साथ समझौता किया और सुबोध को लतिया दिया। हलवाई को दूध से मतलब था और नीलेश उसे लगातार निर्बाध रूप से सप्ताई करता रहा। लेकिन लालदेव के साथ भी नीलेश की साझेदारी लंबी नहीं चली। उधर दूध की बर्बादी से सुबोध अलबला रहा था। नीलेश और सुबोध ने एक बार फिर साझेदारी की और इस बार लालदेव को लतिया दिया। इस बीच नीलेश हलवाई को जरूर बतला देता था कि हम किसके साथ साझेदारी में दूध की आपूर्ति कर रहे हैं। ऐसा कई बार हुआ तो आसपास के गांव वाले नीलेश को पलटी मार कहने लगे।
एक बार तीनों ने गांव के मैदान में लिट्टी-चोखा पार्टी का आयोजन किया। इसमें बिन बुलाए मेहमान की तरह हम भी पहुंच गये। आखिर चरवाही का धंधा हमारा भी है। हमारे होने से उन लोगों को कोई परेशानी भी हुई। लिट्टी-चोखा बनने के बाद हम चारों ने बैठकी लगायी। बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। इसी क्रम में हमने ही पूछ लिया। भाई नीलेश, हलवाई को दूध की सप्लाई के लिए समय-समय पर तुम तीनों पलटी मारते हो, लेकिन पलटीमार होने का आरोप सिर्फ तुम पर ही क्यों लगता है। सुबोध और लालदेव को कोई पलटीमार नहीं कहता है। नीलेश ने जोरदार ठहाका लगाया और कहा कि तुम तो गोवार के गोवार ठहरे। नीलेश ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि पलटी ये दोनों भी मारते हैं, लेकिन करवट बदलने का मौका सिर्फ मेरे पास ही होता है कि किसके साथ मक्खन खाना है। इन दोनों के पास करवट बदलने का ऑप्सन नहीं है। इसलिए पलटीमार होने का आरोप हम पर ही लगता है। इसके बाद उसने अपनी बात समझाने के लिए एक कहानी सुनायी।
नीलेश ने कहा, तीन दोस्त थे। तीनों एक कमरे रहते थे और पलंग भी एक ही था। सोना तीनों को था। एक दोस्त बायें साईड और दूसरा दोस्त दायें साईड सोता था। तीसरा बीच में सोता था। तीनों ऐसे सोते थे कि आपस में सहजता से बातचीत कर सकें। दोनों किनारे सोने वाले को सीधी बातचीत करना सहज नहीं था, लेकिन बीच वाला करवट बदलकर अपनी सुविधा के अनुसार किसी के साथ भी बातचीत कर सकता था। नीलेश ने बात को समझाते हुए कहा कि मानो बीच वाला हम हैं। हम करवट बदलकर किसी के साथ भी बाचतीत कर सकते हैं। लेकिन किनारे वाले करवट बदलेंगे तो नीचे चले जाएंगे। ये दोनों करवट बदलकर नीचे जाने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इसलिए दोनों को हमारे करवट बदलने का इंतजार रहता है। जिसकी ओर हम मुंह कर लिये उसकी चांदी हो जाती है, उसे कोई बतियाना वाला मिल जाता है। जिसकी ओर पीठ कर लिए वह विपक्ष में पहुंच जाता है। वह हमारे खिलाफ बड़बडा़ने लगता है। चूंकि किनारे सोए दोनों लोगों को सत्ता या विपक्ष में होने का निर्णय हमारे करवट बदलने पर निर्भर करता है। इसलिए पलटीमार का आरोप हम पर ही लगता है और वे दोनों नैतिकता के ठेकेदार बन बैठते हैं।
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