वरिष्ठ पत्रकार और फारवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक नवल किशोर कुमार की पुस्तक ‘जातियों की आत्मकथा’ का पहला भाग हाल ही प्रकाशित हुआ है। दूसरा भाग भी प्रकाशनाधीन है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी इस पुस्तक में जाति के उदय और विकास को समझने का प्रयास किया गया है। जाति तथा उसके पेशेगत जुड़ाव को भी समझने की कोशिश की गयी है। लेखक ने जातियों के अंतरसंबंधों का विश्लेषण किया है। इसी मुद्दे को लेकर हमारे संवाददाता रणविजय सिंह से नवल किशोर से बातचीत की, जिसे हम पाठकों के प्रस्तुत कर रहे हैं।
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प्रश्न: जातियों का इतिहास लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? इच्छा कैसे जागृत हुई?
उत्तर: पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि मैंने ‘जातियों की आत्मकथा’ वास्तविक अर्थों में इतिहास नहीं है। अलबत्ता इसमें अलग-अलग जातियों के इतिहास की तलाश अवश्य की गई है। साथ ही, इसमें मानव सभ्यता के विकास के सापेक्ष विभिन्न पेशागत जातियों के सामुदायिक विकास का अवलोकन किया गया है, ताकि यह जाना जा सके कि जातियां जो कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था की धुरी बन गए हैं, उनका उद्गम कहां है और जाति के विनाश का अंत का जो सपना डॉ. आंबेडकर ने देखा था, उसके लिए कौन-सी राह निकलती है। वैचारिक तौर पर इस किताब को लिखने के पीछे निस्संदेह प्रेरणा फुले-पेरियार-आंबेडकर की वैचारिकी से मिली, जिन्होंने जाति और वर्णवादी व्यवस्था को खारिज किया और समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित समाज के निर्माण के लिए काम किया। मसलन, डॉ. आंबेडकर ने ‘हू वेयर शूद्राज’ में शूद्र जातियों के उद्गम की तलाश की है। लेकिन मेरा प्रयास वर्तमान में शूद्रों की वास्तुस्थिति की तलाश करना रहा। यह जानना रहा कि आज यदि कोई जाति मौजूद है तो उसमें उसके पेशे का महत्व क्या है और क्या वह पेशा आज भी उसकी मदद कर रहा है? इसके अलावा यह कि पेशों के बदल जाने के बाद भी जाति बरकरार क्यों है? इसे एक उदाहरण से ऐसे समझिए। वैश्विक बदलावों के इस दौर में ब्राह्मण वर्गों ने अपने पेशों में जबरदस्त बदलाव किया है। जैसे भूमिहार अब खेती-किसानी करने/करवाने के बजाय उद्यम के क्षेत्र में जा रहे हैं। वैसे ही आप देखेंगे कि वैश्य समुदाय पहले व्यवसाय तक सीमित था, अब शासन-प्रशासन में भागीदारी ले रहा है। आप यह भी देखेंगे कि ब्राह्मण वर्ग अब जूतों-चप्पलों की दुकानें तक खोल रहा है। लेकिन ये जातियां अब भी अपने पुराने ही रूप में मौजूद हैं और कहिए कि पूरी ठसक के साथ हैं। इसके बरक्स शूद्र और दलित जातियों में यह बदलाव अत्यंत ही सीमित हुआ है। बहुत हुआ है तो लोग दिहाड़ी मजदूरी करने लगे हैं। लेकिन यह देखिए कि एक चमार जाति का सदस्य किसी यादव जाति के सदस्य के साथ मिलकर दिहाड़ी मजदूरी कर लेता है, लेकिन इससे उनके बीच की सामाजिक दूरी कम नहीं होती। मेरी इस किताब में आप जातियों के बीच अंतर्संबंध को जान सकेंगे और उनके बीच के द्वंद्व को भी। रही बात यह कि इसकी इच्छा जागृत कैसे हुई तो इसका जवाब यह कि मौजूदा दौर में जाति मौजूदा सियासत में सबसे अधिक मजबूत पक्ष बनकर उभरा है। यह इसके बावजूद कि हिंदू जातियों के ब्राह्मणीकरण के प्रयास आरएसएस द्वारा तेज हुआ है। आप कह सकते हैं कि इन तमाम परिघटनाओं के कारण मुझे यह लिखने की इच्छा हुई।
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प्रश्न: ‘जातियों की आत्मकथा’ का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्व क्या है?
उत्तर: जातियों के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक निहितार्थ इनके प्रारंभ से ही अंतर्निहित रहे हैं। जैसे धोबी जाति को ही उदाहरण के रूप में लें। यह जाति एक अलहदा जाति रही, क्योंकि इसने मानव सभ्यता के विकास में साफ-सफाई के पक्ष को जोड़ा। इस जाति ने एक महत्वपूर्ण आविष्कार यह किया कि कपड़ों को साफ किया जा सकता है और धूप में सुखाया जा सकता है। कपड़ों से गंदगी निकालने के लिए इस जाति ने यह खोजा कि गंदे कपड़ों को गर्म पानी में डालकर भी साफ किया जा सकता है। इसे इस लिहाज से सोचिए कि गर्म पानी की सहायता से वस्तुओं को कीटाणुमुक्त बनाया जाता है। इसके अलावा यह देखिए कि धोबी जाति के पुरुष भी औरतों के कपड़े साफ करते हैं और उनके घर की महिलाओं को इससे कोई परेशानी नहीं होती। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ब्राह्मण वर्ग का कोई पुरुष दूसरे समाज के लोगों के कपड़े साफ करे या फिर दूसरी जाति की औरतों के कपड़े धोए? लेकिन धोबी समाज ने यह किया और आज भी कर रहे हैं। अब इस जाति की सामाजिकता देखिए कि यह केवल कहने को अछूत है। धोबी जाति के लोग, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं, लोगों के घरों में जाकर गंदे कपड़े एकत्रित करते हैं तथा साफ करने के उपरांत वापस देने आते हैं। इस लेन-देन में केवल अर्थ शामिल नहीं होता। आप देखेंगे कि धोबी जाति के लोग अन्य दलित जातियों की तुलना में अधिक सचेत हैं। आप देखेंगे कि जिन जातियों को ऊंची जातियों के यहां प्रवेशाधिकार (दरवाजे तक भी) रहा, उनकी सामाजिकता अलग रही और जो एकदम-से प्रतिबंधित रहे, उनकी सामाजिकता अलग रही। यह बात शूद्र जातियों में भी रही। नाई जाति के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। और रही बात राजनीतिक निहितार्थ की बिहार में कर्पूरी ठाकुर दो-दो बार मुख्यमंत्री बने। इसके पीछे कड़वा सत्य यह रहा कि ब्राह्मण वर्गों को उनके मुख्यमंत्री बनने से सामाजिक स्तर पर कोई परेशानी तब तक नहीं हुई, जब तक कि उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं को नहीं लागू किया। लेकिन आयोग की अनुशंसा लागू करने के साथ ही उन्हें गालियां दी गईं। गालियां देनेवाला समाज वही ऊंची जातियों का समाज था, जिसके वास्ते कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान किया था। फिर आप यह देखें कि लालू प्रसाद को यही ऊंची जाति के लोगों द्वारा ‘ललुआ’ कहकर संबोधित किया गया। लेकिन जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने तो यही ऊंची जातियां उन्हें नीतीशवा कहने से बचती रहीं। आप इसे ऐसे भी समझें कि कुर्मी जाति जमीन के मामले में यादवों से अधिक समृद्ध है और कई मायनों में यह जाति खुद को ऊंची जाति के समकक्ष ही मानती है।
आप पाएंगे कि जातियों की ऐसी गुत्थमगुत्थी है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों पक्ष एक-दूसरे पर आश्रित हैं। मतलब यह कि यदि कोई जाति है और उसे सामाजिक हैसियत प्राप्त है तो उसका आर्थिक पक्ष मजबूत होगा और जिसका आर्थिक पक्ष मजबूत होगा, वह राजनीति के मोर्चे पर सबसे आगे होगा। इसका उस जाति की आबादी से कोई खास लेना-देना नहीं है। जैसे कि बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022 के मुताबिक कायस्थ जाति की बिहार में आबादी 7 लाख 85 हजार 771 है, जो कि कुल आबादी का केवल 0.60 प्रतिशत है, शासन-प्रशासन में सबसे अधिक भागीदार है और इस जाति से दो-दो मुख्यमंत्री (केबी सहाय और महामाया प्रसाद सिन्हा) हुए।
मेरे कहने का आशय यह है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्ष को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। तीनों को एक साथ जब हम देखेंगे तभी हम किसी जाति के सभी पक्षों को जान-समझ सकते हैं।
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प्रश्न: जातियों के इतिहास से संबंधित सामग्री कहां से मिल रही है?
उत्तर: निश्चित तौर पर प्राथमिक स्तर पर विभिन्न जातियों के लोगों से प्रत्यक्ष संवाद है। मैंने दो सौ जातियों के लोगों से बातचीत कर उनके बारे में जाना है। फिर उन जातियों के बारे में विभिन्न रिज्ले जैसे नृवंशशास्त्रियों ने कमाल का काम किया है। उन्होंने छोटी-छोटी बातों का भी दस्तावेजीकरण किया है। इसके अलावा पूर्व में हुए जनगणना परक रपटों से मुझे विशेष मदद मिली है।
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प्रश्न: इसका पाठक वर्ग कौन है?
उत्तर: मैंने पहले ही कहा कि जाति आज भी भारतीय समाज की धुरी है। सभी को अपनी जाति अच्छी लगती है। इसलिए इस किताब का एक बड़ा पाठक वर्ग है, जो अपनी जातियों के बारे में जानना चाहता है। पहले खंड में मैंने 67 जातियों के बारे में जब लिख रहा था, तब बड़ी संख्या में लोगों ने मुझे अपनी जातियों के बारे में बताया और लिखने का अनुरोध किया। यह किताब आम आदमी की भाषा में लिखी गई है। इसके पाठक वर्ग में जातियों की सियासत करनेवालों से लेकर जातियों पर शोध करनेवाले अध्येता भी शामिल हैं।
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प्रश्न: जातियों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध क्या है?
उत्तर: आपके दूसरे सवाल के जवाब में मैंने इसे विस्तार से बताने का प्रयास किया है कि इन तीनों पक्षों के बगैर जातियों का अस्तित्व ही नहीं। वर्णवादी व्यवस्था के लिहाज से भी इसे देखें तो आप पाएंगे कि वर्चस्ववादी जातियों ने जातियों के लिए यही अंतर्संबंध रखा है। मसलन, यह कि ब्राह्मण वर्ग को रक्षक के रूप में राजपूत चाहिए जो अन्य जातियों पर बेशक राज करे, लेकिन उसकी स्तुति करे। उसे गाय का दूध चाहिए तो उसने यादवों को यह जिम्मेदारी दी। लेकिन यादव की लाठी उसे कतई स्वीकार नहीं।
( कई वर्षों तक कंप्यूटर सॉफ्टवेयर टेक्नोक्रेट के रूप में काम करने के बाद नवल किशोर कुमार वर्ष 2006 में पत्रकारिता में आए तथा ‘अपना बिहार डॉट ओआरजी’ नामक न्यूज वेबपोर्टल की शुरूआत की। बहुजन नजरिए से खबरों के विश्लेषण के लिए चर्चित। उन्होंने पटना से प्रकाशित दैनिक हिंदी ‘आज’, ‘सन्मार्ग’, ‘अर्ली मार्निंग’ में बतौर पत्रकार काम किया तथा दैनिक ‘तरुणमित्र’ के समन्वय संपादक रहे। संप्रति फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं। लेखक की प्रकाशित पुस्तकों में जातियों की आत्मकथा, सभ्यता की कहानी: थेरीगाथा की महिलाओं की जुबानी, जब एक रोज संसद की नींद खुलेगी (काव्य संग्रह) शामिल हैं।)
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