ललन सिंह ने न पार्टी छोड़ी न तोड़ी। नीतीश कुमार भी भाजपा के साथ नहीं गये। भाजपापरस्त सवर्ण मीडिया की तमाम भविष्यवाणियां फिर गलत साबित हुई। हां, जो बदलाव हुआ, वह सबके सामने है। ललन सिंह की जगह नीतीश कुमार जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये। पार्टियां तो अध्यक्ष बदलती ही रहती हैं, इसमें ऐसा कुछ नहीं था, जिसको लेकर बवाल काटा जाये। लेकिन जब पूरा देश ‘बवाली काल’ से गुजर रहा है तो किसी भी बात पर बवाल काटा जा सकता है। ऐसा पहली बार देखा गया कि किसी पार्टी का अध्यक्ष बदले जाने को लेकर भाजपा और दलाल मीडिया ने इतना तूफान खड़ा किया।
29 दिसंबर को दिल्ली में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक से पहले और बाद में ललन सिंह साये की तरह नीतीश के साथ दिखे। दिल्ली से पटना तक की तस्वीरें बता रही थी कि हम साथ-साथ हैं। इतना ही नहीं, नीतीश के अध्यक्ष बनने के बाद जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद ने जो राजनीतिक प्रस्ताव पास किये हैं, उसमें भाजपा और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ सीधी लड़ाई का ऐलान किया गया है। जेडीयू का राजनीतिक प्रस्ताव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा के खिलाफ नीतीश की वैचारिक स्पष्टता को साफ कर दे रहा है। नीतीश ने साफ कर दिया है कि भाजपा के विरुद्ध संपूर्ण विपक्ष को एकजुट करना उनकी प्राथमिकता है। क्योंकि देश के संविधान और लोकतंत्र को बचाना है। महात्मा गांधी और डा आंबेडकर के सपनों को जीवित रखना है।
पार्टी का राजनीति प्रस्ताव देश को लेकर नीतीश की चिंताओं को भी रेखांकित करता है। वह कहते हैं, देश आजादी के बाद अपने सामाजिक- राजनीतिक इतिहास के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। समाज में भय, द्वेष और उन्माद पैदा किया जा रहा है। यह सब केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार के कारनामों का नतीजा है। इससे हमारे लोकतंत्र और संविधान पर सबसे बड़ा खतरा है। केंद्रीय सत्ता तानाशाही की ओर बढ़ रही है। संवैधानिक संस्थाओं और देश के फेडरल स्ट्रक्चर को कमजोर किया जा रहा है। संविधान में दिये गये पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों में भाजपा सरकार कटौती कर रही है। जब इसके खिलाफ आवाज उठ रही है तो अचानक सनातन का मुद्दा उठाया जा रहा है। हकीकत यह है कि सनातन के चोले में इन्होंने ‘मनुस्मृति’ को छिपाकर रखा है। वे चाहते हैं कि बाबा साहब के संविधान से भारत का शासन नहीं चले, बल्कि मनुस्मृति के आधार पर शासन व्यवस्था और समाज व्यवस्था चले।
नीतीश जब केंद्र की भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तानाशाही की ओर बढ़ने का आरोप लगाते हैं तो उसका आधार नरेंद्र मोदी के हालिया इंटरव्यू में भी दिखता है। इंडिया टुडे को हाल में दिये इंटरव्यू में मोदी जी ने कहा है कि “हमारे देश को मिली जुली सरकारों की जरूरत नहीं है। मिली -जुली सरकारों से पैदा हुई अस्थिरता की वजह से हमने 30 साल गंवा दिये। लोगों ने मिली-जुली सरकारों के समय शासन की अक्षमता, तुष्टिकरण की राजनीति और भ्रष्टाचार को देखा है। यही वजह है कि लोगों के भीतर आशावाद और भरोसे का नुक़सान हुआ है। साथ ही दुनिया भर में भारत की छवि खराब हुई है। इसलिए स्वाभाविक रूप से लोगों की पसंद बीजेपी ही है।” गौर करने वाली बात यह कि 26 दलों के इंडिया गठबंधन के मुकाबले 38 दलों का गठबंधन बनाने वाले नरेंद्र मोदी जी मिली-जुली सरकारों को अस्थिरता और अक्षमता की वजह बताते हैं और केवल अपनी पार्टी भाजपा को देश की जनता की पहली पसंद करार देते हैं। प्रधानमंत्री की इस सोच को देश में एकदलीय शासन की वकालत से जोड़कर देखा जा रहा है। साथ ही एनडीए में शामिल दलों के प्रति भाजपा के हिकारत के नजरिए को रेखांकित करता है। कहा जा रहा है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ-साथ पार्टी के कई शीर्ष नेता जब तब क्षेत्रीय दलों के समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी यों ही नहीं करते रहते हैं। भाजपा जब क्षेत्रीय दलों के समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी करती है तो उसमें उसके सहयोगी दलों के सफाये की भी बात भी अंतर्निहित रहती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ही है। जिसको साफ करने का प्रयास भाजपा ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में किया और बहुत हद तक सफल भी रही। बिहार की एक नंबर की पार्टी को तीसरे नंबर की पार्टी बनाकर छोड़ दिया।
भाजपा बिहार में अपने पांव पर खड़ा होना चाहती है, लेकिन इसमें नीतीश कुमार को सबसे बड़ी बाधा समझती है। ऐसे में नीतीश को अविश्वसनीय और उनकी पार्टी जेडीयू को अप्रासंगिक बना देने की योजना पर लंबे समय से काम कर रही है। नीतीश 2022 में दूसरी बार भाजपा से अलग हुए तो उसकी बड़ी वजह अपनी पार्टी को बचाने की चिंता थी। भाजपा ने नीतीश के खिलाफ पहले चिराग पासवान का इस्तेमाल किया। उसने एक तीर से दो शिकार किये। नीतीश को कमजोर किया और चिराग को नेता से ‘हनुमान’ बना दिया। रामविलास पासवान जैसे स्वाभिमानी नेता के पुत्र चिराग पासवान जब अपने को ‘मोदी का हनुमान’ बताते हैं तो अपनी बेचारगी-लाचारगी की नुमाइश ही करते हैं। यह अलग बात है कि चिराग घोषित रूप से मोदी की हनुमानगीरी करते हैं और एनडीए के अन्य दल अघोषित हनुमान की भूमिका में हैं। मोदी भक्ति के सिवा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन नीतीश मोदी की हनुमानगीरी करने वाले नेता नहीं हैं। यह उन्होंने कई अवसरों पर साबित किया है। नीतीश ने 2022 में भाजपा से नाता तोड़ कर तीसरी बार साबित किया कि वह मोदी की पराधीनता कबूल नहीं कर सकते हैं।
बिहार में सत्ता से बाहर होने के बाद भाजपा और दलाल मीडिया का एक सूत्री प्रचार चला कि यह सरकार नहीं चलेगी। लालू और नीतीश में नहीं पटेगी। सीबीआई और ईडी के छापे चले। सरकार अब गयी, तब गयी की भविष्यवाणियां होती रही। जब कुछ नहीं हुआ तो जेडीयू में तख्ता पलट की कहानी प्लांट की गयी। ललन सिंह को कहानी का किरदार बनाया गया। ललन सिंह और लालू प्रसाद में निकटता को नीतीश कुमार के खिलाफ राजद से मिलकर साजिश के तौर पर प्रचारित किया गया। यह सब तब शुरू हुआ जब जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर ललन सिंह का कार्यकाल पूरा हो रहा था।
सवाल उठता है कि ललन सिंह का अध्यक्ष पद से हटना बिल्कुल स्वाभाविक है या उसमें कोई पेच है! जवाब है, इसमें दोनों बातें हैं। ललन सिंह को लेकर पार्टी के भीतर खेमेबाजी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इस कड़ी में अशोक चौधरी का नाम अग्रणी है। लेकिन यह आधा सच है। नीतीश ने ऐसे समय में पार्टी की कमान फिर से अपने हाथ में ली है, जब वह देशभर में जाति गणना की मांग उठा रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात कह रहे हैं। बिहार में उनकी सरकार ने पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों का आरक्षण बढ़ाया है। ऐसी स्थिति में पार्टी का मुख्य चेहरा पिछड़ी जाति से आया हुआ नेता बने, यह राजनीतिक और रणनीतिक जरूरत है। नीतीश ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया है। और इसी जरूरत को पूरा करने के लिए खुद के हाथ में पार्टी की कमान ली है।
रही बात नीतीश की विश्वसनीयता की तो यह कहा जा सकता है कि यह सवाल बार-बार इस वजह से उठता है क्योंकि नीतीश दो बार अपनी आस्था बदल चुके हैं। भाजपा के साथ लंबे समय तक सरकार भी चलाई है और उसके खिलाफ ‘तलवार’ भी भांजी है। खासकर अब जब वह लालू यादव की पार्टी के साथ सरकार चला रहे हैं। वामपंथी दल साथ में हैं। लेकिन गाहे-बगाहे उनका यह कहना कि 2005 से पहले बिहार की हालत कैसी थी। फिर रह-रह कर अटल और आडवाणी की तारीफ करना। भाजपाइयों के साथ मित्रवत रहने की दुहाई देना। नीतीश पर संदेह करने का कारण बनता है। लेकिन क्या इतने से कहा जा सकता है कि वह फिर से भाजपा के साथ हो लेंगे? तो ऐसा फिलहाल नहीं होने जा रहा है। नीतीश की असली परीक्षा तब होगी जब 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर नंबर गेम में भाजपा पिछड़ जाये और सहयोगियों की तलाश में नीतीश की ओर निहारती दिखे। तब नीतीश को साबित करना होगा कि वह इतिहास रचेंगे या इतिहास बन जायेंगे।
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