बिहार में राजनीति काफी तेजी से करवट बदल रही है। वोटरों की अपेक्षा और आकांक्षा भी बढ़ रही है और वे अपने लिए नयी पार्टी, नयी उम्मीद और नयी जमीन की तलाश कर रहे हैं। इसको लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी यादव जाति में है। राजद में यादवों की संभावना पर पूर्ण विराम लग गया है। राजद में यादवों की जो नयी मंडली बनी है, उसमें मालदार लोगों के लिए ही संभावना बनती है। जदयू यादवों की कभी पसंद नहीं रहा है। शरद यादव के दौर में कुछ संभावना दिखती थी, उस पर भी अब विराम लग गया है। बिहार में कांग्रेस राजद की फीलर पार्टी है और उसमें यादवों के लिए कोई गुंजाईश नहीं है। वामपंथी दलों में एकादुका लोग मिल जाएंगे, लेकिन वहां भी रास्ता संकरी ही है।
बिहार में भाजपा सबसे संभावनाशील पार्टी है। इसके साथ ही बिहार में यादव सबसे ज्यादा संभावनाशील जाति है। कुल आबादी का 14.26 प्रतिशत यादवों का है और आबादी लगभग पौने दो करोड़ है। वर्गीय आधार पर देखें तो हिंदू सवर्णों की चारों जातियों की आबादी से भी ज्यादा आबादी यादवों की है। पिछड़ी जातियों (बीसी 2) में आधे से अधिक अकेले यादव हैं। इस लिहाज से यादवों के राजनीतिक महत्व और उपयोगिता को आसानी से समझा जा सकता है। इसी राजनीतिक उपयोगिता और महत्ता को देखेत हुए यादव वोटर बिहार में करवट बदलने संभावना तलाशने में जुट गये हैं।
जब से केंद्र की राजनीति के हिसाब से एनडीए का गठन हुआ था, तब से भाजपा बिहार में लंगड़ा कर चल रही है। बिहार में लंबे समय तक नीतीश कुमार की लंगड़ी सरकार में बैसाखी ही बनी रही। भाजपा की आंतरिक राजनीति में मुसलमान से भी ज्यादा नफरत यादवों के खिलाफ रहा है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बिहार में जिसे एनडीए कहा जाता है, उसके केंद्र में यादवों के खिलाफ नफरत ही था। यादवों के खिलाफ नफरत बांट कर ही बिहार में एनडीए की सरकार चलती रही थी।
फिलहाल बिहार में जदयू और भाजपा की राजनीति सांप और नेवला की हो गयी है। लेकिन इसमें भी कभी-कभी दोस्ती की छौंक लग जाती है। इससे बिहार भाजपा का दम घुंटने लगता है। इस दमघोंटू माहौल से निजात पाने का एक ही रास्ता है यादव। इसीलिए भाजपा अब यादवों पर दाव लगाने की तैयारी में है। मध्य प्रदेश में डॉ मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाना बिहार और उत्तर प्रदेश को साधने की रणनीति है। लेकिन इसी रणनीति के तहत अब यादव भी भाजपा में सेंधमारी की तैयारी में हैं।
18 जनवरी को बिहार में यादव समाज की ओर से डॉ मोहन यादव का अभिनंदन समारोह आयोजित किया जा रहा है। व्यवहार में भाजपा यादव समाज के कुछ प्रमुख लोगों को आगे करके अभिनंदन का अभियान चला रही है। इसके लिए तत्कालिक रूप से एक संस्था का भी गठन कर लिया गया है। हालांकि पूरी तरह से इस अभिनंदन समारोह का भीड़पोषण और अर्थपोषण भाजपा कर रही है। लेकिन यह यादवों के लिए बेहतर अवसर और राजनीतिक संदेश भी है।
तथाकथित महागठबंधन में यादवों की संभावना हाउसफुल हो गयी है। उसी दौर में भाजपा यादवों को जोड़ने की सधी रणनीति बना रही है। इस रणनीति को यादव भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। अपनी पार्टी से असंतुष्ट यादव नेता भाजपा में आश्रयस्थल बना रहे हैं। भाजपा भी इस आश्रयस्थल को अभयारण्य बनाना चाहती है। यादवों को सत्ता में साझीदार बनाना चाहती है। यह भाजपा की मजबूरी है। वोट के लिहाज से अपाहिज भाजपा को आत्मनिर्भर बनने के लिए यादवों का व्यापक सपोर्ट चाहिए। सिर्फ भूराबाल और बनिया के भरोसे भाजपा आत्मनिर्भर बनी सकती है। उसे अहीरों का मट्ठा और घी भी चाहिए नीतीशग्रह से मुक्ति के लिए।
इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में यादव भी भाजपा में सेंधमारी के बजाये मुख्यद्वार से प्रवेश की रणनीति बनाने लगे हैं। भाजपा ने भी दरवाजा खुला रखा है, लेकिन दरवाजे पर भूराबाल नामक भूत को भी तैनात रखा है, जिसका कार्य व्यवहार भाजपा के नियंत्रण में नहीं होता है। मोहन यादव जैसे ओझा को भाजपा इसलिए बिहार बुला रही है ताकि भूराबाल की छंटाई हो सके, उसका आंतक कम हो सके। यदि भाजपा में यादव जाते हैं तो उसका सोशल स्ट्रैक्चर भी बदलेगा। भाजपा में गैरसवर्ण जातियों का सम्मान भी बढ़ेगा।
बिहार भाजपा के ढांचे में निश्चित रूप से सामाजिक न्याय का दायरा बढ़ा रहा है, लेकिन आवरण पर भूराबाल ही चढ़ा हुआ है। इस भूराबाल के आवरण को उतारने में सामाजिक न्याय की जातियों के साथ यादव ही उपयोगी रसायन का काम करेंगे।
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