पूर्व प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर सिंह। उनका मानना था कि संभावनाओं को यथार्थ में बदलना ही राजनीति है। बिहार के एक आम सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सोचिये कि क्या राजद प्रमुख लालू यादव पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी की जगह पत्रकार वीरेंद्र यादव को एमएलसी बनवा सकते हैं। थोड़ा ठहरिये, अलबलाई मत। हमने बात कही थी संभावनाओं को यथार्थ में बदलने की। यह बिल्कुल संभव नहीं है। लालूजी सामाजिक न्याय के अग्रदूत हैं, लेकिन उस न्याय की दायरे में उनका परिवार नहीं आना चाहिए।
राबड़ी देवी चौथी बार विधान परिषद के लिए नामांकन करेंगी। तीन बार विधायक रह चुकी हैं। उनका चुना तय है। राजद के तीन और उम्मीदवार कौन हैं, अभी तय नहीं है। संभव है जब आप यह खबर बांच रहे हों तो नाम की भी घोषणा हो जाए। तो फिर आप कहेंगे कि फालतू के बकवास में काहे उलझा दिये हो भाई।
यह मंथन एक बार बिहार में जरूरी हो गया है। क्या लालू यादव परिवार के बाहर निकलकर नहीं सोच सकते हैं। राबड़ी देवी एमएलसी नहीं ही बनेंगी तो राजद के राजनीतिक सेहत पर क्या असर पड़ सकता है। तेजस्वी यादव ने पार्टी की कमान मजबूती से संभाल ली है तो फिर पहली पीढ़ी को पद छोड़ने में परेशानी क्यों होनी चाहिए। दरअसल बीती रात हम इसी बात पर विचार कर रहे थे कि तेजस्वी यादव से मिलकर एमएलसी बनने की इच्छा से अवगत कराया जाए। होना तो नहीं ही है, बतियाने में क्या दिक्कत है। लेकिन तेजस्वी यादव से बात करना ही असंभव है। तेजस्वी वन वे कनेक्शन हैं, वहां इनकमिंग नहीं है। संजय यादव, प्रीतम कुमार से लेकर कोई भी व्यक्ति तेजस्वी यादव से बात कराने का भरोसा नहीं दिलवा सकते हैं। कभी 10 या 5 नंबर के दरवाजे पर बुलाकर छोड़ दिया जाएगा। इसके साथ ही, सबसे बड़ी परेशानी है कि आप जिस व्यक्ति के माध्यम से तेजस्वी यादव तक पहुंचने का प्रयास करेंगे, वे खुद ही टिकट की लाईन में हैं।
जहां तक खुद के लिए बात करने का सवाल है, राबड़ी जी यादव कोटा के रूप पहले ही हैं तो दूसरे यादव का हक कहां बनता है। हर पार्टी में जाति का कोटा तय होता है। यह सामाजिक समीकरण है। राजद जिसे सामाजिक न्याय कहता है, भाजपा उसे सोशल इंजीनियरिंग कहती है। सामाजिक न्याय में जहां समाज का सरोकार समाहित होता है, वहीं सोशल इंजीनियरिंग में जाति के वोट का वैल्यू आंका जाता है। वोटों के अंक गणित में संवेदना ओझल होती जा रही है और सौदा भारी पड़ने लगा है। इस सौदे और संभावना के बीच हम अपना वैल्यू आंकते हैं तो शून्य आता है। वैसे में हम बबूल के पेड़ के नीचे आम की अपेक्षा कर रहे हैं तो यह खुशफहमी है। लेकिन राजनीतिक यथार्थ यही है कि कॉरपोरेट नेतृत्व के दौर में आम आदमी की भूमिका वोट देने की तक सीमित हो गयी है। इससे आगे के लिए कीमत भुगतान के लिए तैयार रहना चाहिए। इसमें न किसी पार्टी का बंधन है, न जाति का लिहाज।
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