8 मई की दोपहर हमने दाउदनगर से पटना आवास पर फोन किया। यह सूचना देने के लिए कि काराकाट से लोकसभा चुनाव लड़ने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया है और वापस पटना आ रहे हैं। इतनी बात सुनते ही छोटी बेटी अर्चना ने कहा कि आप बड़े जोश, उत्साह और उम्मीद से चुनाव लड़ने गये थे। अचानक क्या हुआ कि जोश, उत्साह और उम्मीद को पीछे छोड़कर वापस आ रहे हैं। इस सवाल का कोई तर्कसंगत जवाब हमारे पास नहीं था। यह स्वाभाविक था कि जिस रास्ते को आप उजाले का अभियान बता रहे थे, उसे ही अंधियारे का गलियारे समझ कर लौट रहे हैं तो तर्कसंगत जवाब नहीं बनता है।
दोपहर का समय था। हालांकि गर्मी कम थी, पर उत्साह ठंडा पड़ गया था। तीन महीनों से चुनाव की पृष्ठभूमि बना रहा था कि एक झटके में ध्वस्त हो गया था। नयी परिस्थिति में खुद को आत्मसात नहीं कर पा रहा था। हम खुद भी अपने आप को संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रहे थे। तीन बजे की गाड़ी बुक थी। ड्राइवर का फोन आने के बाद हम कमरे से भखरुआ मोड़ के लिए निकले। कमरे से रोड पर आ गये, लेकिन सड़क पर लग रहा था कि पैर उठ नहीं रहा है। उम्मीदों का बोझ असह्य हो रहा था। एक अभियान में पराजय का दंश भी मन पर था। धीरे-धीरे भखरुआ मोड़ की ओर बढ़े जा रहा था। स्कार्पियो वहीं मंदिर के पास लगी हुई थी। स्कार्पियो में बैठने के बाद चित शांत नहीं हो पा रहा था। लग रहा था कि हम हार कर भागे जा रहे हैं। हम परिस्थितियों से लड़ नहीं पाये। खुद को भगोड़ा, रणछोड़, पलायनवादी जैसे शब्दों से धिक्कार रहे थे, लेकिन मन का दूसरा पक्ष सांत्वना भी दे रहा था। रास्ते में बाधा आने पर रास्ते बदलना या थोड़ा इंतजार कर लेना कोई पराजय नहीं है। इसे दो कदम चल कर एक कदम पीछे हटना भी कह सकते हैं। इन्हीं बातों का अंतर्द्वंद्व से मन बेचैन था।
स्कार्पियों में बैठे-बैठे में मन में यह बात उमड़ रही थी कि चुनाव लड़ने की भूख हमारे अंदर कहां से पैदा हुई। न कोई राजनीतिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि और न आर्थिक क्षमता। फिर हर चुनाव में मैदान मारने की इच्छा क्यों पैदा हो जाती है। हमें लगता है कि 25 साल की उम्र के बाद से हमारे मन में चुनाव की खुमारी चढ़ने लगी थी। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में डिग्री हासिल करते हुए हमने 25 साल की उम्र पूरी कर ली थी। इसके बाद भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका विचार मीमांसा में नौकरी की शुरुआत की थी। बहुत लंबी नहीं चली। इसके बाद देशबंधु, नवभारत, दैनिक जागरण, दैनिक नई दुनिया जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिलता रहा। लेकिन आवारा सांढ़ की तरह नाद बदलने में कोई परहेज और परेशानी नहीं हुई। इसी क्रम में एक मासिक पत्रिका ओजस्विनी में भी काम करने का मौका मिला। इस पत्रिका के लिए हमने भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौड़ का इंटरव्यू किया था। यह इंटरव्यू उन्हें काफी अच्छा लगा था। इस इंटरव्यू की भाषा और प्रस्तुति से वे काफी प्रभावित थे। इसके बाद उनके साथ हमारा जुड़ाव बढ़ा। कभी-कभार मुलाकात भी होती रहती थी। मुलाकात के दौरान राजनीति के साथ जाति सरोकार को लेकर खूब बात होती थी। वे गोवा मुक्ति आंदोलन से जुड़े रहे थे। उनका मानना था कि उनके नाम के साथ यादव जुड़ा होता तो भाजपा की राजनीति में उन्हें जगह नहीं मिलती। सरनेम गौड़ होने के कारण जाति को लेकर लोगों में दुविधा बनी रहती थी। इसका लाभ मिला।
1998 या 1999 का लोकसभा चुनाव रहा होगा। उस समय हम भी मध्य प्रदेश की राजनीति में रमने लगे थे। बाबूलाल गौड़ के अलावा तत्कालीन कांग्रेसी उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव से भी नजदीकी बढ़ने लगी थी। भोपाल की यादव राजनीति में सक्रियता भी बढ़ गयी थी। उसी दौरान एक बार लालू यादव भोपाल गये थे तो यादवों को मिलवाने का काम भी हमने ही किया था। 1998 या 1999 के लोकसभा चुनाव में हम भोपाल से लगी लोकसभा सीट विदिशा से चुनाव लड़ना चाहते थे। शायद यह पहला अवसर था, जब हमने चुनाव लड़ने की सोची थी। उस समय हमने बसपा के संस्थापक कांशीराम से मुलाकात करने की कोशिश भी की थी। हालांकि मुलाकात हो नहीं पायी थी। उस दौरान बाबूलाल गौड़ ने चुनाव लड़ने के हमारा उत्साह बढ़ाते हुए कहा था कि बसपा का टिकट मिल जाएगा तो हम विदिशा में मदद भी करवा देंगे। हालांकि न टिकट मिला, न चुनाव लड़ पाये। हमें लगता है कि चुनाव लड़ने का प्रयास हमने भोपाल में ही किया था। (जारी)