भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय तक पहुंचते-पहुंचते यह बात समझ में आ गयी थी कि हिंदी पट्टी में यादव होना सबसे बड़ी राजनीतिक योग्यता है। औरंगाबाद से मैट्रिक, रांची से इंटर और हैदराबाद से ग्रेजुएशन के बाद हम पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए भोपाल पहुंचे थे। यह वह दौर था, जब बिहार में लालू यादव, यूपी में मुलायम सिंह यादव और हरियाणा ओम प्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री हुआ करते थे। दरअसल मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के पहले तक जाट भी यादव माने जाते थे। इसी का असर था कि चौधरी चरण सिंह और देवीलाल जैसे जाट नेताओं का प्रभाव यूपी-बिहार यादवों पर रहता था।
डॉ लोहिया के समाजवादी आंदोलन की रीढ़ यादव जाति ही थी। उसके साथ ही अन्य पिछड़ी जातियां गोलबंद थीं। कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी, भूपेंद्र नारायण मंडल जैसे अनेक नेता इसी गोलबंदी की राजनीति कर रहे थे। यह गोलबंदी इतनी ताकतवर थी कि मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, जेबी कृपालानी समेत अनेक समाजवादी नेताओं ने कई बार बिहार का प्रतिनिधित्व लोकसभा में किया। नेताओं की इसी फेहरिस्त के बीच प्रदेश में कई यादव नेताओं का उभार हुआ।
इसका असर सामाजिक स्तर पर भी पड़ रहा था। बिहार का सामाजिक ढांचा भी बदलने लगा था। पूरे बिहार में सवर्णों की सामाजिक सत्ता को यादवों से चुनौती मिलने लगी थी। इसी सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में हम भी मैट्रिक, इंटर, ग्रेजुएशन की राह पर आगे बढ़ते जा रहे थे। भोपाल में रहते हुए अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने की हरसंभव कोशिश की। यादव के सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ाव बढ़ाया। माखनलाल में पढ़ते हुए हमने वाराणसी से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका यादव ज्योति की कॉपी भी उसी पते पर मंगवाने की शुरुआत की। इसके माध्यम से हम अपनी जातीय पहचान को ज्यादा आक्रामक बनाना चाहते थे। इसके पीछे एक प्रतिरोध की भावना भी थी।
प्रमाणपत्रों में नाम केवल वीरेंद्र कुमार हुआ करता था। इसलिए उपस्थिति पंजी में भी यही नाम दर्ज होता था। सवर्णों में एक प्रबल भाव होता है, सामने वाली की जाति जानने का। पढ़ाई के दौरान हमसे जिन लोगों ने जाति पूछी, सबके सब सवर्ण थे। माखनलाल में भी नामांकन के तीसरे-चौथे दिन सवर्णों की जमात ने हमारी जाति पूछी। इस घटना ने जाति के नाम पर हमें आक्रामक बना दिया। अपना पूरा अनुभव यही था कि जाति सिर्फ सवर्ण ही पूछता है। इस घटना के बाद हमने लोगों से जाति पूछना शुरू किया। इसमें हमने किसी से लिहाज नहीं की। जिससे भी संबंध बनाना या बढ़ाना है, उसकी जाति हम नाम के बाद तुरंत पूछ लेते हैं। अगर किसी के नाम से सिंह, तिवारी, पांडेय या मिश्रा लगा हो तो कौन वाले सिंह, तिवारी, मिश्रा हैं। यह भी पूछ लेते हैं। अब हमारी किसी की वर्गीय पहचान के बजाये जातीय पहचान में हमारी ज्यादा रुचि है।
1989 का लोकसभा और 1990 का विधान सभा चुनाव सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के लिए टर्निंग प्वाईंट साबित हुआ। बिहार में लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने का व्यापक असर सामाजिक स्तर पर हुआ। 1950 के बाद शुरू हुए समाजवादी आंदोलन ने यादवों के सामाजिक बोध को ताकत दी थी। यादवों ने अन्य पिछड़ी जातियों को साथ लेकर चलने की शुरुआत की थी। इसी कारण हर क्षेत्र में कोई न कोई यादव नेता उभर रहे थे और सक्रिय थे। सामाजिक आंदोलन में यादव छातानुमा जाति हो गयी थी, जिसके साये में सैकड़ों जातियां सुकून अनुभव कर रही थीं। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों की जड़ें भी मजबूत हुई थीं। उन्हीं आंदोलनों की जमीन पर लालू यादव जैसे लोगों को मजबूत आधार मिला था। और कई प्रमुख नेताओं के विरोध के बावजूद लालू यादव जनता दल विधायक दल के नेता चुने गये थे।
लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार के सामाजिक स्वरूप में काफी तेजी से बदलाव आया। पिछड़ों में सत्ता की धमक भी बढ़ने लगी। पिछड़ों में सत्ता बोध की भावना प्रबल हुई। लालू यादव ने यादवों के सामाजिक बोध को सत्ता बोध में तब्दील किया। सत्ता का यह बोध सभी पिछड़ी एवं दलित जातियों में आया था, लेकिन यादव जाति में यह ज्यादा प्रबल था। इसका असर हमारे व्यक्तित्व पर भी था।
भोपाल में रहते हुए हमने जातीय पक्ष को ज्यादा उभारने का प्रयास किया। बाबूलाल गौड़ या सुभाष यादव के साथ निकटता इसी का विस्तार था। भोपाल में बड़ी आबादी बिहारियों की है। उनके साथ भी स्वाभाविक जुड़ाव था। हमारी कोशिश रहती थी कि यादवों के साथ जुड़कर अपना आधार बढ़ाया जाए। राजनीतिक और सामाजिक जमीन को स्थायी बनाये रखने के लिए यह जरूरी था। (जारी)