शुक्रवार की शाम। करीब साढ़े 6 बजे हम विधान सभा परिसर पहुंचे। अंधियारा घना होने लगा था, लेकिन बल्बों की रौशनी प्रकाश बिखेर रही थी। जेठ महीने का पहला दिन था। मौसम की तपिश चरम पर थी, लेकिन परिसर में उस वक्त शीतलता तैर रही थी।
जनवरी के अंतिम सप्ताह से परिसर में वीरानी छायी हुई है। विधायकों की भीड़ में भी एक सन्नाटा सा महसूस होता है। सरकार बदलने के बाद दर्जन भर से अधिक विधायकों ने अपनी निष्ठा बदल ली। दर्जन भर विधायक लोकसभा के लिए अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। विधान मंडल की रौनक पिछले तीन महीनों से गायब है।
बिहार में सरकार बदल गयी। सरकार नहीं, सरकार को ढोने वाले कहार बदल गये। गर्दन पकड़ने वाला पैर पर गिर पड़ा और पैर पकड़ने वाला गर्दन पर चढ़ बैठा। लेकिन राजा मस्त, दरबारी मस्त। वजह है कि माल पर कुंडली महाराज की ही है। माल की पहरेदारी उसी चौधरी, झा, तिवारी की है। राजा भी गदगद हैं कि कुर्सी सलामत है।
बिहार भी गजब का राज्य है। यहां कोई विपक्षी दल नहीं है। यहां एक सत्तारूढ़ दल है, जो 20 साल से राज भोग रहा है। दूसरा सहयोगी दल है और तीसरा दल सत्ता में आने के इंतजार में बैठा है। इसमें कोई विपक्षी दल नहीं है। दूसरे और तीसरे दल की भूमिका बदलती रहती है, लेकिन सत्ता की डोर पहले दल के हाथ से बंधी है।
लोकसभा का चुनाव अपनी अंतिम यात्रा की ओर बढ़ रहा है। 1 जून को यात्रा की पूर्णाहुति हो जाएगी। 4 जून को परिणाम आएगा और फिर केंद्र में कोई नयी सरकार बन जाएगी। लेकिन केंद्र में नयी सरकार बनने के बाद बिहार विधान सभा का क्या होगा। चुनाव के बाद रौनक लौटेगी या फिर विधायकों को विधान सभा चुनाव में लौट जाना पड़ेगा। यही बड़ा सवाल है।
नीतीश कुमार पर कोई भरोसा नहीं करता है। न भाजपा, न राजद। दोनों नीतीश कुमार का इस्तेमाल करते हैं। इनका हाल कछुआ वाला हो गया है। कछुआ के मांस की बिक्री निर्मम तरीके से होती है। कछुआ का शिकारी ग्राहक की मांग के अनुरूप मांस काट कर बेचता है और पानी में छोड़ देता है। दूसरा ग्राहक आने पर फिर उसका मांस काटता है और पानी में छोड़ देता है। कछुआ का मांस खत्म होने तक यही क्रम चलता है। कछुआ कब मर गया, न कछुआ को पता चलता है और न मांस काटने वाले को। भाजपा और राजद दोनों दावा करते हैं कि इसी साल जदयू समाप्त हो जाएगा। पहले अमित शाह कहते थे, अब तेजस्वी यादव कहते हैं। लोकसभा चुनाव में स्थिति यह हो गयी है कि नीतीश के कामों की चर्चा न भाजपा का कोई नेता करता है और न तेजस्वी यादव चर्चा करते हैं। दोनों अपनी-अपनी उपलब्धि ही बताते हैं। नीतीश कुमार भी अपनी उपलब्धि के नाम पर बच्चों की संख्या ही बताते हैं।
2020 के विधान सभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के चेहरे की चमक फीकी होने लगी थी। वह सिलसिला अभी तक जारी है। स्थिति इतनी अपमानपूर्ण हो गयी कि विधान सभा की कार्यवाही से मुख्यमंत्री के भाषणों को कई बार हटाना पड़ा। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
हम विधान सभा परिसर की वीरानी की बात कर रहे थे। जनवरी में सरकार बदलने के बाद किसी भी विधायक के चेहरे पर विश्वास का भाव नहीं रह गया है। सभी सशंकित है। शेष डेढ़ साल के कार्यकाल को लेकर परेशान हैं। गठबंधन के स्वरूप को लेकर बेचैन हैं। वैसी स्थिति में टिकट बचे रहने का बड़ा सवाल है। गठबंधन की आंच में किसकी सीट स्वाहा हो जाए, कोई नहीं जानता है। अगले चुनाव के लिए टिकट की प्रत्याशा में बैठे लोग भी इन्हीं चिंताओं से बेचैन हैं।
यह भी विडंबना है कि पलटी मारने का मौका भी नीतीश कुमार के पास ही है। राजद या भाजपा की भूमिका सिर्फ दरी बदलने तक सीमित है। इन दोनों दलों के पास विधान सभा में अपनी सीट तय करने की औकात भी नहीं है। भाजपा या राजद की सीट सत्ता या विपक्ष में होगी, यह तय करने का एकाधिकार भी नीतीश कुमार के पास ही है। भाजपा और राजद मुर्दों की जमात है। जदयू सत्ता का व्यापारी बन गया है। वैसी स्थिति में विधान सभा आपको विलाप सभा लगती हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।