प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार शपथ ले ली है। नये मंत्रिमंडल का गठन हो गया है। जदयू को हिस्सेदारी भी मिल गयी है। केंद्र सरकार के गठन और उसकी उम्र तय करने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है। नीतीश कुमार पर केंद्र सरकार की निर्भरता बढ़ गयी है। लेकिन सरकार पर नीतीश कुमार का कोई नियंत्रण नहीं होगा।
नीतीश कुमार की अपनी कुर्सी सर्वोपरि है। इसलिए वे केंद्र सरकार के किसी भी कार्य में अड़ंगा नहीं डालेंगे। विशेष राज्य का दर्जा और देशव्यापी जाति आधारित गणना जैसे मुद्दे को जदयू के प्रवक्ता उठाते रहेंगे। लेकिन इन मुद्दों पर नीतीश चुप रहेंगे। इन मुद्दों की आड़ में जदयू प्रेशर पोलिटिक्स करेगा, जनता को भरमाने के लिए, लेकिन सच यह है कि इस तरह की दवाब की राजनीति में सिर्फ झुनझुना ही मिलेगा।
यह सही है कि सरकार के संचालन में नीतीश कुमार पर निर्भरता बढ़ गयी है, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार नीतीश के नियंत्रण में नहीं होगी। सामान्य बहुमत से जो काम नरेंद्र मोदी को करना होगा, वह करेंगे। उसके लिए जदयू के मुखापेक्षी नहीं रहेंगे। संसद की दो तिहाई बहुमत वाला कोई भी काम केंद्र सरकार करने वाली नहीं है। पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने कई बार नीतीश कुमार का साथ छोड़ा और साथ में भी रहे। इसके बावजूद संसद में जदयू ने किसी भी विधेयक या प्रस्ताव पर सरकार के खिलाफ मतदान नहीं किया। वजह यह रही है कि वह केंद्र से टकराव के बजाये समन्वय की राजनीति करते रहे हैं। समन्वय की राजनीति आगे भी बरकरार रहेगी। नीतीश कुमार ऐसी कोई भी मांग करेंगे, जिससे नरेंद्र मोदी को परेशानी हो। क्योंकि नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य नरेंद्र मोदी से बंधा हुआ है।
केंद्र में सरकार भाजपा की बन गयी है, लेकिन बिहार की जान सांसत में फंस गयी है। राज्य सरकार का क्या होगा। यह सरकार नवंबर 2025 तक कार्यकाल पूरा करेगी या विधान सभा का मध्यावधि चुनाव कराया जाएगा। यह बड़ा मुद्दा हो गया है। विधान सभा में नीतीश कुमार के बहुमत का मार्जिन काफी कम हो गया है। जदयू के अंदर ही बागियों की संख्या बढ़ने लगी है। पिछले फरवरी महीने में विधान सभा में बहुमत साबित करने में जो फजीहत नीतीश कुमार की हुई, उसने एक बड़ा सबक दे दिया है। राजनीतिक गलियारे की चर्चा के अनुसार, नीतीश कुमार विधान सभा का मध्यावधि चुनाव चाहते हैं। उनको लगता है कि मध्यावधि चुनाव के बाद भाजपा और लोजपा के साथ जदयू को बड़ा बहुमत आ जाएगा। लेकिन इसका भी खतरा है कि यदि भाजपा ने लोजपा और हम के साथ बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया तो नीतीश कुमार को सत्ता से धकियाने में देर में नहीं लगेगी।
बिहार की राजनीतिक जमीन जितनी सहज और समतल लग रही है, उतनी है नहीं। लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू को 9 सीटों का नुकसान हुआ है। यह नुकसान दोनों के बीच भरोसे की खाई को बढ़ाया है। अविश्वास का यह घाव जल्दी भरने वाला नहीं है। भाजपा के राजनीतिक चरित्र पर कोई भी सहजता से विश्वास करने को तैयार नहीं है। 2019 में जितनी सहजता से भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा से किनारा कर लिया था, उतनी ही सहजता से 2024 में पशुपति कुमार पारस को धकिया दिया। भाजपा ने नीतीश की मर्जी के खिलाफ आरसीपी सिंह को मंत्री बनाकर उनकी औकात पहले भी बता चुकी है। भाजपा अपनी सुविधा के अनुसार, सहयोगियों के साथ मिठाई और मिरचाई की राजनीति करती रही है। नीतीश कुमार भाजपा के साथ मिठाई भी खा चुके हैं और भाजपा मिरचाई भी मुंह ठुस चुकी है।
भाजपा और जदयू का आपसी सहयोग बहुत लंबा होने वाला नहीं है। इसलिए बिहार सांसत में पड़ गया है। नीतीश सरकार की उम्र बहुत भरोसे वाली नहीं है। इसलिए बिहार को कुछ महीनों में एक बार फिर बड़ी राजनीतिक अस्थिरता के लिए तैयार रहना चाहिए। वैसे भी नीतीश कुमार मन बहलाने के लिए सरकार में सहयोगी बदलते रहे हैं।