राष्ट्रीय जनता दल ने 20 और 21 जून को लोकसभा चुनाव के परिणाम पर दो दिवसीय मंथन किया। यह मंथन 4 सीटों पर जीत के लिए था या 22 सीटों पर हार के लिए, यह स्पष्ट नहीं हो सका। राजद ने 23 ही उम्मीदवार दिये थे, लेकिन जिन 3 सीटों को वीआईपी ने गोद लिया था, वह भी राजद की थी। इसलिए उसकी हार की जिम्मेवारी भी राजद को ही जाती है। वास्तव में राजद की असली जीत एक ही सीट औरंगाबाद में हुई है, बाकी तीन सीटों पर जीत सामाजिक परिस्थिति और पवन सिंह के कारण हुई।
राजद की समीक्षा बैठक चार चरणों में हुई। पहले चरण की समीक्षा 20 जून हुई थी, जबकि तीन अन्य चरणों की समीक्षा 21 जून को हुई। राजद की समीक्षा बैठक के नायक तेजस्वी यादव थे। पार्टी का नेतृत्व भी वही कर रहे हैं। इसलिए हार या जीत के जिम्मेवार उन्हें ही माना जाना चाहिए। हम समीक्षा बैठक को तेजस्वी यादव यानी यादव जी की पाठशाला ही मानते हैं। जहां तक मंथन की बात है, ठीक वैसे ही जैसे भैंस के रंग पर बहस करना होता है। भैंस काली ही होती है, उस पर मंथन क्या करना है। एकाध भैंस भूरी होती है, जैसे औरंगाबाद का परिणाम। राजद की समीक्षा में मंथन हार के कारणों पर होता रहा। सामान्य ही बात है कि जनता ने वोट नहीं दिया, इसलिए हार गये।
मंथन इस पर होना चाहिए कि राजद को जीतने के लायक वोट क्यों नहीं मिला। राजद के पास कम से कम 32 प्रतिशत वोटों का अपना आधार है। सीवान, काराकाट, किशनगंज और पूर्णिया को छोड़ दें तो शेष 36 सीटों पर तेजस्वी यादव बनाम नरेंद्र मोदी की लड़ाई थी। वोट शेयर में 32 फीसदी वोट होने के बावजूद राजद 10-12 प्रतिशत वोट का जुगाड़ नहीं कर सका। हार की असली वजह यह है। राजद के पास सक्रिय और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी पूंजी है। इसके बावजूद बूथ पर लीड नहीं ले पाता है। इसकी वजह है कि कार्यकर्ताओं की सक्रियता और प्रतिबद्धता को हाशिए पर धकेल दिया जाता है। वैसे में कार्यकर्ता उदासीन हो जाता है। तेजस्वी यादव के पास कार्यकर्ताओं से बात करने का समय नहीं है। पटना के बाहर नेताओं या कार्यकर्ताओं के साथ संवाद बनाने का मौका नहीं है। उन्हें अब ट्रैक्टर को हेलीकाप्टर समझ कर उस पर सवार होकर वोटरों के बीच जाना होगा। चमार, दुसाध, कोईरी, कहार, बढ़ई, लोहार समेत अन्य जातियों के दरवाजे पर खुद दस्तक देनी होगी। इसका कोई विकल्प नहीं है।
राजद का सबसे बड़ा दुश्मन ‘गमछा ब्रिगेड’ है। तेजस्वी यादव भी मंचों खूब गमछा लहराते रहे हैं। गमछे की लहर में 32 फीसदी वाला वोटर नाच उठता है, लेकिन यही नाच 36 फीसदी वालों पर भारी पड़ने लगता है। अतिपिछड़ा समाज इसी गमछे के डर से राह बदल लेता है। गांव में कहावत है कि लाल गमछा देखकर सांढ भड़क जाता है। इसमें आगे जोड़ सकते हैं कि हरा गमछा देखकर अतिपिछड़ा भड़क जाता है। हरा गमछा कभी समाजवादियों की पहचान हुआ करता था, अब हरा गमछा अतिपिछड़ों के लिए दहशत का सबब गया है।
तेजस्वी यादव को राजनीतिक लड़ाई जीतने के लिए सामाजिक लड़ाई लड़नी होगी। माई-बाप के फेर में न माई बचेगी, न बाप बचेगा। उन्हें अब सांस्कृतिक लड़ाई लड़नी चाहिए। नीतीश कुमार ने अपनी रणनीति के तहत यादवों के खिलाफ गैरयादव पिछड़ी जातियों में खौफ पैदा किया था, उस वातावरण को बदलना होगा, भरोसे का माहौल बनाना है।
तेजस्वी यादव को हर विधान सभा के कम से कम एक बूथ पर केस स्टडी करवानी चाहिए कि बूथ पर कितने लोगों ने मतदान नहीं किया। जिन लोगों ने मतदान नहीं किया, वह किस जाति समूह के हैं। इससे यह भी पता चलेगा कि जातियों में वोट का ट्रेंड क्या है। बूथ पर मिले वोटों की संख्या से पता चल जाएगा कि किन जातियों का वोट किधर जा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य है कि तेजस्वी यादव की टीम में डिजिटल लोग काफी हो गये हैं, जिन्हें न जमीन की समझ है और न दीवार पर ठोके गये गोईठा का समाजशास्त्र का पता है।
21 जून को हम 4.35 बजे से 5.50 बजे तक लगभग 75 मिनट तेजस्वी यादव के दरवाजे पर बाहर खड़ा रहे। विधायक, विधान पार्षद, उम्मीदवार और पार्टी पदाधिकारियों का सिलसिला लगातार जारी रहा। लगभग सभी के हाथ में एक फाइल में कुछ कागजात थे। जूतों का रंग काला या सफेद था। अधिकतर लोग कुर्ता और पैजामे में थे, जबकि कुछ लोगों ने शर्ट और पैंट भी पहन रखा था। अधिकतर लोग अपनी गाडि़यों से पहुंच रहे थे, जबकि कुछ लोग साझे की सवारी पर आ रहे थे। मतलब एक ही गाड़ी में दो-तीन लोग आये थे। गाडि़यों का आना लगभग बंद हो गया तो हमने भी एक गिलास ईख का जूस गटका और दरवाजे के बाहर की कुछ तस्वीर उतारी। इसके बाद चमचमती गाडि़यों के बीच से फटफटिया उठाकर निकल लिये।