रविवार 7 जुलाई। भाजपा कार्यालय में हम और मुखियाजी के संपादक राजेश ठाकुर बैठ कर गपिया रहे थे। इसी बातचीत में उन्होंने बताया कि बिहार संग्रहालय में पुस्तक का लोकार्पण है। पुस्तक अशोक कुमार सिन्हा की है और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित कलाकारों पर आधारित है। इसके अलावा कार्यक्रम के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी।
चार बजने वाला था। हम दोनों भाजपा कार्यालय से पैदल ही निकले। दरवाजे पर पहुंचकर हमने कहा कि हम अपनी फटफटिया से चलते हैं, आप टेंपो से आइए। पटना के मुख्य मार्ग पर बिना हेलमेट के मोटरसाइकिल पर बैठना एक सजा हो गयी है। यह इतना अमानवीय हो गया है कि अगर मुख्य सचिव या परिवहन विभाग के प्रधान सचिव भी सड़क पर किसी हादसे के शिकार होते हैं तो उन्हें अपनी मोटर साइकिल पर बैठाकर कोई भी व्यक्ति अस्पताल नहीं ले जा सकता है। क्योंकि किसी की जिदंगी से ज्यादा महत्वपूर्ण मदद करने की इच्छा रखने वाले का एक हजार रुपया हो जाता है। सड़क सुरक्षा के नाम पर वसूली का सरकारी अभियान जेब पर ही नहीं, जीवन पर भी भारी पड़ने लगा है।
भाजपा कार्यालय से राजेश ठाकुर पैदल ही टेंपो पकड़ने के लिए निकल पड़े। हम मोटरसाइकिल लेकर मजार वाली सड़क से निकलना चाहे तो वह सड़क जाम थी। पीछे लौट कर इनकम टैक्स चौराहा पहुंचे तो हाईकोर्ट जाने वाली सड़क पर यातायात रोक दिया गया था। इसलिए इनकम टैक्स चौराहे पर जाम का नजारा उत्पन्न हो गया। राजेश ठाकुर से बात हुई। उन्होंने कहा कि जाम की वजह से हम पैदल ही बिहार संग्रहालय जा रहे हैं।
हम इनकम टैक्स चौराहे से आर ब्लॉक की ओर चले। योजना यह थी कि बिहार संग्रहालय के पीछे में विधान सभा के उपाध्यक्ष नरेंद्र नारायण यादव का आवास है। वहीं गाड़ी खड़ी कर बिहार संग्रहालय में प्रवेश कर जाएंगे। हम एजी आफिस के पास दारोगाराय पथ में प्रवेश किये। आगे बढ़ते हुए फिर उस रास्ते से हाईकोर्ट की ओर मुड़े और फिर बिहार संग्रहालय वाली सड़क पर। हम से आगे-आगे एक गाड़ी पर सवार दो लोग जा रहे थे। उनकी गाड़ी संग्रहालय वाली सड़क पर मुड़कर संग्रहालय के गेट से अंदर प्रवेश किया। हमने भी उनके पीछे गाड़ी को अंदर घुसाया। गार्ड ने पूछा – कार्यक्रम में जाना है। हम हामी भरते हुए आगे बढ़ लिये। वह जोड़ी अपनी गाड़ी खड़ी कर संग्रहालय में प्रवेश कर गया। यह इलाका हमारे लिए अनजान था। हमने भी गाडी़ लगाकर उनके पीछे से संग्रहालय में प्रवेश किया। हमें रास्ते का कोई आइडिया नहीं था। अंदर घुसने के बाद एक लंबा गलियारा था। उस गलियार से दोनों आगे बढ़े जा रहे थे। फिर एक जगह दाहिने मुड़कर ओझल हो गये। हमें लगा कि वही रास्ता आगे की ओर निकलता होगा। हम वॉश रूम गये। वहां देखा पेशाबखाना के ऊंचाई काफी कम है। हमने पूछा कि यह इतना नीचा है। सफाई कर्मी ने बताया कि यह बच्चों के लिए है। बगल में बच्चों की गैलरी है। बच्चों की गैलरी हमें समझ में नहीं आया। हम फिर गलियारे में पहुंचे और आगे बढ़ लिये। जहां दोनों ओझल हुए थे। हम भी वहीं दाहिने मुड़कर आगे बढ़ लिये। एक बंद दरवाजा था। उसके नीचे से कुछ लोगों के चलने का आभाष हो रहा था। दरवाजा खोले तो हम संग्रहालय के अगले हिस्से में पहुंच चुके थे। अब एक लंबी सांस ली।
जहां हम खड़े थे, वह बेली रोड वाले हिस्से का अगला भाग था। अब चिंता थी कि कार्यक्रम किस हॉल में है। हमने देखा कि विधान सभा के कुछ स्टाफ खड़े हैं। इसमें उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा के निजी स्टाफ भी हैं। विधान सभा के एक स्टाफ के साथ हॉल की ओर बढ़े तो दरवाजे पर सुरक्षा गार्ड ने पूछताछ शुरू की। पटना संग्रहालय में गले में गमछा लपेट कर कोई पत्रकार आ सकता था, सुरक्षा गार्ड सोच ही नहीं सकता था। इस बीच महानिदेशक अंजनी सिंह पहुंच गये। उन्होंने कहा कि चलो हॉल में बैठो। फिर हम आगे बढ़े जा रहे थे। रास्ते में पुस्तक के लेखक अशोक सिन्हा से मुलाकात हुई। उन्होंने हॉल में जाने का रास्ता बताया और अतिथियों की आगवानी में लग गये।
हम दोनों गलत रास्ते में अलग बढ़ गये। पूछने पर पता चला कि कार्यक्रम वाले हॉल में यह रास्ता पीछे से जाता है। हम दोनों पिछले दरवाजे से हॉल में पहुंचे। हॉल की सभी कुर्सियां भरी हुई थीं। एक कुर्सी खाली मिली तो साथ वाले बैठे लिये। इस दौरान उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा और महानिदेशक अंजनी सिंह दोनों मंच पर पहुंचे। तब समझ में आया कि रास्ते में उमुख्यमंत्री के स्टाफ, महानिदेशक और लेखक उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा का इंतजार कर रहे थे, जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। इस बीच एक कुर्सी हमारे हाथ भी लग गयी थी। लगभग पौने दो घंटे के कार्यक्रम में 8 पद्मश्री कलाकारों को विजय सिन्हा ने सम्मानित किया। कलाकरों ने भी अपने उद्गार व्यक्त किये। अपने संबोधन में विजय सिन्हा ने भी आश्वासनों का पुल बांधा। वैसे बिहार में पुल ठहने का सिलसिला ही शुरू हो गया है। अंजनी सिंह ने भी संग्रहालय से जुड़ी कई जानकारी साझा की।
भाषण के बाद श्रोताओं के लिए राशन का भी इंतजाम था। मंच से इसकी घोषणा की गयी कि सभी लोग अल्पाहार के लिए आमंत्रित हैं। लेकिन यह नहीं बताया कि अल्पाहार का इंतजाम कहां है। हम और राजेश ठाकुर सभागार से बाहर निकले और अल्पाहार की तलाश में जुट गये। पूछने पर पता चला कि अल्पाहार की व्यवस्था कैफेटेरिया में है। हम दोनों वहीं पहुंचे। वहीं कई अन्य साथियों से मुलाकात हुई। हम राजेश ठाकुर को छोड़कर आगे बढ़ लिये।
बिहार संग्रहालय के अंदर इतना घुमरिया गये थे कि जिधर गाड़ी लगा रखे थे, वह रास्ता भूल गये। हमने एक सुरक्षाकर्मी से पूछा कि हमने पिछले दरवाजे पर गाड़ी लगायी थी, उसका रास्ता किधर से है। उसने बताया कि वह दरवाजा गेट नंबर पांच है। अगले गलियारे से निकलकर चले जाइए। हम अंदर में कई चक्कर लगा लिये, लेकिन रास्ता नहीं मिला। इस बीच हम एक कला दीर्घा में पहुंच गये। गजब का आकर्षण था। एक से बढ़कर एक आकृति। उसमें कई सेल्फी प्वाईंट भी बने थे। उस दीर्घा में एक दरवाजा था, वह बंद था। एक सुरक्षाकर्मी ने कहा कि उधर रास्ता नहीं है। उस दीर्घा में ही थोड़ी देर ठहरा। रास्ते खोजने के चक्कर में समझ चुके थे कि यही रास्ता उस गलियारे में जा सकता है। हमने सुरक्षाकर्मी से कहा कि हमें पांच नंबर गेट पर जाना है। तब उसने कहा कि वही रास्ता जाएगा। हम उसी गेट के अंदर में गये। आगे गलियारे था।
यह गलियारा आम रास्ता नहीं था। वह स्टाफ के आने-जाने के काम ही आता है। हमें लगता है कि हम से पहले जो दो लोग इस गलियारे से अंदर आये थे, वह स्टाफ ही रहे होंगे। क्योंकि आम आदमी को रास्ता ही समझ में नहीं आएगा।
बिहार संग्रहालय में एक-दो बार ही गये हैं। जब भी गये तो अनायास ही, जैसे कल अनायास पहुंच गये थे। हम कला दीर्घा या संग्रहालय घुमने के लिए कभी नहीं गये। इसकी दो वजह है। पहली वजह है कि कला और कलाविधा की हमें समझ नहीं है। दूसरी वजह है कि लोग बताते हैं कि उसका टिकट बहुत महंगा है। पहली बार रास्ता की तलाश में भटकने के दौरान कला दीर्घा में पहुंच गया, तब समझ में आया कि बिहार संग्रहालय घुमना कितना जरूरी है। एक बार हम संसद भवन स्थित संग्रहालय में गये थे। बिहार संग्रहालय और संसदीय संग्रहालय की दीर्घाओं का विषय वस्तु अलग-अलग भले ही रहा हो, लेकिन आकर्षण दोनों का एक समान ही लगा।
पुस्तक लोकार्पण के चक्कर में मुखियाजी वाले ठाकुर ने दो घंटा उलझा दिया, लेकिन इन दो घंटों ने कला और कलाकारों को समझने का नजरिया बदल दिया। भले ही बदलाव कुछ दिनों बाद राजनीति की आंधी में उधिया जाएगा, लेकिन कला के प्रति जो आकर्षण पैदा हुआ है, वह मन-मस्तिष्क् में लंबे समय पर हावी रहेगा। यही सोचते हुए हम गलियारे में आगे बढ़ते जा रहे थे। तब तक गलियारे में बाहर निकल चुके थे। फिर गाड़ी पर सवार हुए और अपनी राह पकड़ ली।