गांवों में एक कहावत प्रचलित है- लोभी की दुनिया में ठग भूखे नहीं मरता है। इसको राजनीति की भाषा में कहें तो इसका अनुवाद होगा- सत्ता की प्यासी पार्टियों के दौर में मुख्यमंत्री को बहुमत का संकट नहीं होता है। 2013 में सत्ता से भाजपा को लतियाने के बाद से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सत्ता की प्यासी पार्टियां का तमाशा दिखा रहे हैं और बिहार तमाशबीन बन गया है। बिहार में प्रशासनिक लूट का दौर भी यहीं से शुरू होता है। अपाहिज और विकलांग मंत्रियों की राजनीति की शुरुआत भी 2013 के बाद ही होती है। इसी दौर में नौकरशाह ताकतवर होते गए और मंत्री नौकरशाहों के नौकर में तब्दील हो गये। सरकार में शामिल पार्टियां भी सत्ता के लिए नीतीश कुमार की लठैत बन गयीं।
इसी दौर में विपक्ष नाम की सत्ता समाप्त हो गयी। विपक्ष वेटिंग सत्ता पक्ष में बदल गया। सरकार की आलोचना, निंदा या मुद्दों पर घेरने के विपक्ष की भूमिका समाप्त हो गयी। विपक्ष अब इसी इंतजार में रहता है कि नीतीश कुमार कब पलटी मारते हैं कि हम सत्ता पक्ष में आ जाएं। सत्ता में सपोर्ट कर रही पार्टी इसी आशंका में रहती है कि नीतीश कब पलटी मारते हैं कि हम विपक्ष में पहुंच जाएं। विपक्ष में बैठी पार्टी नीतीश कुमार को उनकी ईमानदारी, कानून-व्यवस्था और ऐसे ही रागात्मक मुद्दों पर पलटी मारने के लिए उकसाती रहती है। अपने दरवाजे को गोबर से लिप कर रखती है, ताकि भव्य स्वागत किया जा सके। उधर सत्ता में शामिल पार्टी नीतीश कुमार के यशोगान में मस्त रहती है। सत्ता की प्सासी पार्टियों की भूमिका सरकार में होगी या विपक्ष की, यह भी नीतीश कुमार तय करते हैं। मरी हुई, निर्लज और सत्ता की हवसी पार्टियों के दौर में सदन में सक्षम विपक्ष की भूमिका की तलाश करना ही निरर्थक है। पिछले 10-11 साल से बिहार में सक्षम विपक्ष नहीं है। नेता प्रतिपक्ष के पीछे खड़ी विधायकों की भीड़ विपक्ष नहीं है, बल्कि इस पद के नाम पर सुविधा भोगने का प्रमाण पर भर है।
अब सरकार की भूमिका गाली का समाजशास्त्र गढ़ने की भी हो गयी है। गाली का समाजशास्त्र गढ़ने का काम भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही किया है। खुद इसको लीड भी करते रहे हैं। 2023 के नवंबर-दिसंबर महीने में मुख्यमंत्री ने पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को जिस तरह से सदन में गरियाया था, वह मर्यादा की राजनीति का समापन किस्त था। इसमें महात्मा गांधी के सात सामाजिक पाप की धज्जियां उड़ा दी गयी थीं। गांधी की दुकान सजाने वाले ने ही महात्मा की ऐसी-तैसी कर दी। इस घटना के बाद हमने जीतनराम मांझी से पूछा कि इतना सुनने के बाद बर्दाश्त कैसे कर लिये। उनका जवाब था कि हम तो बचपन से यही सब सुनते आ रहे हैं।
17वीं विधान सभा गालियों के लिए ही याद की जाएगी। सदन की पहली बैठक में ही मुख्यमंत्री और तेजस्वी यादव का विवाद काफी गरमा गया था और उस हिस्से को कार्रवाई से हटा दिया गया था। अध्यक्ष के रूप में विजय सिन्हा और मंत्री के रूप में सम्राट चौधरी की व्याकुलता से भी सभी परिचित हैं। मुख्यमंत्री और स्पीकर का विवाद भी इसी सदन की थाती है। बिहार के इतिहास में पहली बार स्पीकर का बहिष्कार सत्ता पक्ष (जदयू) ने कर दिया था। दांपत्य सुख का सूत्र भी इसी सदन को बताया गया था। 17वीं विधान सभा के विभिन्न सत्रों में जो कुछ सदन कहा गया या हुआ, उसके लिए गाली जैसा शब्द भी बौना पड़ जाता है।
सोमवार से विधान सभा का मानूसन सत्र शुरू हो रहा है। 5 दिनों के इस सत्र में कई विधायी और वित्तीय कार्य प्रस्तावित हैं। 18 जुलाई को प्रेस सलाहकार समिति की बैठक में स्पीकर नंद किशोर यादव ने कहा था कि हंगामा की जगह सकारात्मक खबरों को समाचार माध्यमों में जगह मिलनी चाहिए। स्पीकर के रूप में उनका यह आग्रह एकदम उचित था, लेकिन जब सदन के वेल में आकर विधायक हंगामा करते हैं तो खबरें मर्यादा की कहां से तलाशी जाएं। तथ्यों के आधार पर न विपक्ष तैयार होता है और न सत्ता पक्ष तैयार होता है। जब सत्ता और विपक्ष सदन की कार्यवाही के दौरान अपने-अपने नेता की लठैत की भूमिका में आ जाएं तो विकास की राह ही बाधित हो जाती है। मर्यादा भी लज्जा जाती है। तब नौकरशाह मंत्रियों का भाग्य विधाता बना जाता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पूर्व मंत्री सुधाकर सिंह तो एक उदाहरण मात्र हैं।