विधान सभा और परिषद की बैठक की गहमागहमी के बीच गलियारे में खबरों की कई राह और निकलती है। इन्हीं गलियारों में हम खबर खोजते फिरते हैं। कभी मिलती है और कभी नहीं मिलती है। मंगलवार को विधान परिषद की बैठक खत्म हो गयी थी। अवधेश नारायण सिंह दूसरी बार सभापति निर्वाचित होने के बाद पदभार ग्रहण कर चुके थे। दो बार वे कार्यकारी सभापति भी रहे। कार्यकारी और पूर्णकालिक के बीच अंतर समझना जरूरी है। पूर्णकालिक सभापति सदन सदस्यों द्वारा मतदान या सर्वसम्मति से चुने जाते हैं, जबकि कार्यकारी सभापति राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते हैं।
हम बात कर रहे थे कि परिषद की बैठक समाप्त हो चुकी थी। हमारे साथ पत्रकार राजकुमार यादव भी थे। हमने कहा कि चलिए, अवधेश बाबू को बधाई दे दिया जाए। हम जब चैंबर में पहुंचे तो वह निकलने की तैयारी कर रहे थे। हमने उनको वीरेंद्र यादव न्यूज की कॉपी दी। उन्होंने कहा कि यह तो हम पढ़ चुके हैं। हमने कहा कि बधाई वाला फोटो अभी बाकी है। अवधेश बाबू पर हम कुछ अपना ज्यादा ही अधिकार समझते हैं। वजह है कि वे हमारे स्थानीय एमएलसी हैं। वे गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से परिषद के लिए निर्वाचित हुए हैं। हम भी उसी क्षेत्र के ओबरा के निवासी हैं।
अवधेश नारायण सिंह का सभापति होना हमारे लिए आनंद का विषय है। यह अपना-अपना आनंद और उसकी अनुभूति है। आपके प्रति सद्भाव रखने वाला व्यक्ति जब सत्ता में होता है तो इसका चाहे-अनचाहे लाभ मिलता रहता है। ओबरा से विधायक रामविलास सिंह 1990 में जनता दल सरकार में मंत्री थे। उस समय हमारा पटना आना-जाना शुरू हो गया था। हमको इंटर का मूल प्रमाण पत्र निकालना था। हम रश्मि कंपलैक्स स्थित इंटर काउंसिल गये। वहां इस काम से संबंधित व्यक्ति ने कहा कि सरकार हमको पैसा यहां बैठने के लिए देती है। काम करवाना है तो पैसा लाइए। हम उसी शाम मंत्रीजी के आवास पर गये। बातचीत के क्रम में हमने उनसे कहा कि पैसा दीजिए, घूस देना है। साथ ही इंटर काउंसिल की पूरी कहानी बता दी। इसके बाद उन्होंने तत्काल इंटर काउंसिल के सचिव को फोन लगवाया और जमकर फटकार लगायी। अगले दिन हम गये तो हमारा सर्टिफिकेट बनकर रख हुआ था। उस दौर में जब हम पटना आते थे तो मुख्य सचिवालय में जाने के लिए पास नहीं लेते थे। हम ओबरा से आये हैं और मंत्री जी से मिलना है। इतना बताना ही काफी होता था।
फिर आप सोच रहे होंगे कि यह गोवार कहां उलझा दिया। हम सिर्फ यह बताना चाहते हैं कि सत्ता की धमक और इकबाल क्या होता है। अब मंत्री यह कहते फिरते हैं कि सचिव नहीं सुनता है। कुछ काबिल मंत्री कहते हैं कि हम सचिव को मिलाकर काम करवा लेते हैं। ऐसा शायद ही कोई मंत्री हों जो कहें कि हम सचिव को निर्देश देकर काम करवा लेते हैं। अब मंत्रियों की योग्यता भी अधिकारियों की कनफूसकी से तय होती है। जिस मंत्री ने भी अधिकारियों को निर्देश देकर काम करवाने की कोशिश की, उनका ही काम तमाम हो जाता है। खैर।
हमने अवधेश बाबू के साथ एक फोटो खिंचवायी। उसके बाद वहां से निकले। सुबह में हम जब विधान सभा पहुंचे तो बैठक भोजनावकाश तक के लिए स्थगित हो गयी थी। पोर्टिको की सीढ़ी पर विधायक और मंत्री अपनी-अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। इसी बीच तेजप्रताप यादव ने आवाज दी कि आपकी पत्रिका कहां है। हमने पत्रिका बैग से निकालकर उन्हें दी। वहां खड़े अन्य कई लोगों को भी कॉपी दी। इसके बाद हम प्रेस रूम की ओर बढ़ लिये।
हम बात आनंद की कर रहे थे। सत्ता के गलियारे में खड़ा होकर सत्ता के साथ होने का भ्रम पालने का अपना आनंद है। यह भ्रम सुख मीडिया वालों को सबसे ज्यादा होता है। हम भी इसके अपवाद नहीं हैं।