शनिवार को जगजीवन राम शोध संस्थान में मेला लगा हुआ था। कार्यक्रम का शुभारंभ 2 बजे से होना था, लेकिन पौने एक बजे ही जमावड़ा लगने लगा था। हम भी लगभग इसी समय पहुंचे। घर से हम सुबह साढ़े पांच बजे ही निकले थे और घर वापसी की हड़बड़ी थी। इसलिए समय से पहले हम हॉल में पहुंच गये थे, ताकि कार्यक्रम की शुरुआत के बाद प्रस्थान कर जाएं।
हम फटफटिया खड़ी कर परिसर से बाहर निकल ही रहे थे कि गौतम आनंद अपनी टोली के साथ गेट के बाहर मिल गये। गौतम आयोजकों की टीम में शामिल थे। वहीं केशव नामक यूट्यूबर से परिचय हुआ। हमने पूछा- यादव हो जी। उसने हामी भरी तो हमने पूछ लिया कितने यूट्यूबर पटना में यादव होंगे। उसने बताया कि कम से कम 20 तो खुद अपना यूट्यूब चला रहे हैं। इसके अलावा दूसरे के साथ काम कर रहे यादव भी बड़ी संख्या में हैं। हमने कॉपी उसे बढ़ायी और कहा इसमें सबका नाम और मोबाइल नंबर लिख दो। उसने करीब दो दर्जन लड़कों का नाम लिखा। इस बीच भीड़ बढ़ती जा रही थी। हमने कहा कि तुम अपना नंबर दे दो, बाकी बाद में बात कर लेंगे। इसी दौरान सामाजिक न्याय आंदोलन वाले रिंकू यादव मिल गये। रिंकू अच्छे संगठनकर्ता के साथ अच्छे लेखक भी हैं और नियमित रूप से लिखते रहे हैं। उनका कई आलेख हमने फारवर्ड प्रेस से उठाकर वीरेंद्र यादव न्यूज में छापा भी था। उनसे पहली मुलाकात थी। इसके साथ ही परिचय का सिललिसा लंबा होता चला जा रहा था। इसी बीच प्रोफेसर की डायरी के लेखक लक्ष्मण यादव भी चाय मंडली में शामिल मिले। कप खाली करने के बाद हॉल की ओर बढ़े तो हमने अपनी पत्रिका लक्ष्मण यादव की ओर बढ़ाते हुए कहा- आप किताब वाले तो हम लाठी वाले। इससे पहले कि कुछ हम कहते कि उन्होंने कहा कि आप अपने नाम से पत्रिका निकालते हैं। हमने हामी भरी।
एक पत्रकार हैं श्रीकांत। जब हमने पत्रिका शुरू की थी, उन्होंने सवाल पूछा था कि ऐसा नाम क्यों रखे हो। हमारा जवाब था कि किसी अपरिचित को हमें अपना नाम नहीं बताना पड़ेगा। वह पत्रिका हाथ में लेते समझ जाएगा कि सामने वाला व्यक्ति वीरेंद्र यादव है। दूसरी वजह यह है कि बिहार में यादव की आबादी डेढ़ करोड़ है और उन्हें नाम से ही लगेगा कि पत्रिका हमारी है। और आज ये दोनों सियूएशन हमारे सामने था। पत्रिका के प्रति उपस्थित लोगों का जुड़ाव यह बता रहा था कि इस मजमे में 55-60 फीसदी से अधिक लोग लाठी वाले ही हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे डा. लक्ष्मण यादव की पुस्तक प्रोफेसर की डायरी का पटना में लोकार्पण था। इसे आप ग्राहक की तलाश भी कह सकते हैं। जगजीवन राम शोध संस्थान का 15 हजार किराया वाला सभागार खचाखच भरा हुआ था। श्रोताओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। मंच पर विधान सभा के पूर्व स्पीकर उदय नारायण चौधरी, पूर्व सांसद अली अनवर, माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, पूर्व मंत्री आलोक मेहता, जेपी विश्वविद्यालय में एसिस्टेंट प्रोफेसर डा. दिनेश पाल, डा. उषा, रिंकू यादव मंचासीन थे। कार्यक्रम का संचालन मनोज गुप्ता रहे थे। वे भी एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं। छात्र नेता गौतम आनंद ने अतिथियों का स्वागत किया।
प्रोफेसर की डायरी पर आधारित परिचर्चा का विषय था – किताब के बहाने कलम के भविष्य पर परिचर्चा और शिक्षा व्यवस्था पर आलोचनात्मक विश्लेषण। वक्ताओं ने इसके आसपास ही अपनी बात रखी। किताब की विषय वस्तु को लेकर हम कोई चर्चा नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हमने किताब पढ़ी नहीं है। जब पढ़ेंगे तो उस पर चर्चा भी करेंगे।
प्रोफेसर की डायरी के बहाने कलम की भविष्य पर परिचर्चा से इतना स्पष्ट हो गया है कि लाठी वाले अब किताब और कलम की बात भी करने लगे हैं। इस जाति में अब लेखक भी होने लगे हैं और पाठक भी। हमारा एक साथी था अमरेंद्र यादव। पटना में वह एक राजपूत संपादक से नौकरी मांगने गया था तो संपादक ने कहा था कि अहीर हो गाय-भैंस की चरवाही करो, कहां अखबार की नौकरी करोगे। शनिवार को आयोजित परिचर्चा और उसमें शामिल लोग इस बात के गवाह थे कि लाठी में अब सिर्फ पगहा ही नहीं, उसमें किताब का बस्ता भी टंगने लगा है। जितना हम लाठी चलाने में सधे हुए हैं, उतना ही किताब लिखने में प्रवीण और पढ़ने के शौकीन भी। खैर, हॉल में भीड़ बढ़ती देख हम एक साथी को अपनी सीट पर बैठाकर चलते बने, क्योंकि भूख को झेलना और संभव नहीं था।