सच्चिदानंद यादव
भूपेंद्र नारायण मंडल मानवता के एक उत्कृष्ट उदाहरण रहे हैं। वे स्वाधीनता आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति के सेनानी और समाजवादी चिंतन के अमर साधक थे। आजीवन पूरी निर्भीकता, पारदर्शिता और कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ वंचितों और उपेक्षितों की उत्थान में समर्पित रहे। शिक्षा का अलख जगाने, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लोगों को जागृत करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनका हृदय विशाल था। वे कभी अपना और अपने परिवार की चिंता नहीं की, अपितु हमेशा दूसरों के ही हितों की चिंता करते रहे।

भूपेंद्र नारायण मंडल के क्रांतिकारी स्वरूप का दर्शन तो उनके किशोरावस्था में ही हो गया था। 1920 में महात्मा गांधी ने स्कूल, न्यायालय और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की। छात्र भूपेंद्र अंग्रेजों द्वारा स्थापित जिस स्कूल के छात्र थे, उसको बहुत कड़ा अनुशासन था। लेकिन भूपेंद्र ने बड़ी चतुराई के साथ छात्रों को तैयार कर सभी कक्षाओं का बहिष्कार कर दिया। सभी मैदान में आकर गांधी जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे। भूपेंद्र को स्कूल से निष्कासित कर दिया गया।
बाद में दूसरे स्कूल से पास कर बीए, बीएल कर मधेपुरा में वकालत पेशा ग्रहण कर लिया। वकालत करने में बटाईदारों के मुकदमों की पैरवी बिना फीस लिये करते। जमींदार का यह पुत्र जमींदारी प्रथा का विरोधी बन गया। वे बड़े किसानों द्वारा मांगन, मनसेरी, बैठ, बैगारी के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया।
1942 में स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम सीमा पर पहुंच गया था। भारत छोडो प्रस्ताव और करो या मरो के नारा के बाद जनता खुली बगावत पर उतर आई थी। गांधी समेत अधिकांश बड़े नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था। अंग्रेजों ने फिरंगी सेना को बड़ी संख्या में देश के सभी शहरों में तैनात कर देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया था। अनगिनत लोग शहीद होने लगे थे। आंदोलन का केंद्र रहे मधेपुरा के कई प्रमुख नेता नेपाल जा कर भूमिगत हो गये थे। यहां के एसडीओ ऑफिस में धावा बोल कर तिरंगा झंडा लहराने के लिए बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानी तैयार थे। भूपेंद्र नारायण ने उसके नेतृत्व करने की घोषणा कर दी। उनके परिवार और वकील समुदाय उन्हें मना करने लगे। कुछ दिन पूर्व में उनकी एसडीओ के साथ इतनी तीखी बहस हुई थी। 13 अगस्त, 1942 को कांग्रेस ऑफिस में स्वाधीनता सेनानियों का जत्था जमा होने लगा, तो दूसरी ओर एसडीओ ऑफिस के चप्पे-चप्पे में फिरंगी बंदूक धारी सैनिकों को तैनात कर दिया गया था। भूपेंद्र बाबू के नेतृत्व से लड़ाकों का मनोबल आसमान पर था। वे गगनचुंबी नारे लगाते हुए अपनी कुर्बानी देने आगे बढ़ पड़े। एसडीओ भी बाहर आकर सभी बंदूक धारी उनके गोली चलाने का आदेश पाने को तत्पर हो गये। वकील साहब परिसर में एसडीओ को दिखाकर पहले अपने वकालत की लाईसेंस और डिग्री को फाड़ते हुए घोषणा करते हैं कि आज मैं वकालत पेशा कर परित्याग करता हूं और आजीवन देश एवं समाज सेवा का संकल्प लेता हूं। फिर उन्होंने ऊंची आवाज में कहा कि आज हम अंग्रेजों भारत छोड़ो के आंदोलन को सफल बनाने आये हैं। हम या तो देश को आजाद करेगें या स्वयं शहीद हो जायेगें। एसडीओ के लिए सब कुछ अप्रत्याशित था। वे गोली चलाने का आदेश दे पाते उसके पूर्व सेनानियों ने तेज गति से अंग्रेजों के यूनियन जैक झंझा को उतार कर फेंक दिया और भारत का तिरंगा झंडा एसडीओ की छत पर लहरा कर देश के स्वाधीन होने की घोषणा कर दी। प्रशासन की सभी तैयारी धरी की धरी रह गई। भूपेंद्र बाबू का आंदोलन करना और जेल जाना तब तक होता रहा जब तक कि देश स्वाधीन नहीं हो गया।
समाजवादी चितंन के अमर साधक रहे हैं भूपेंद्र बाबू। कांग्रेस पार्टी के समाजवादी विचार के जेल में बंद बुद्धिजीवी स्वतंत्र भारत के भावी स्वरूप पर चिंतन मनन कर रहे थे। आचार्य नरेन्द्र देव मार्क्स और बुद्ध तो डॉ० राम मनोहर लोहिया और जे.बी. कृपलाना मार्क्स और गाँधी के विचारों के बीच समन्वयक करने तो जयप्रकाश मुख्य रूप से मार्क्सवाद पर चिंतन कर रहे थे। भूपेंद्र नारायण मंडल मार्क्स एवं दलित साहित्य के बीच समन्वय पर मंथन करते थे। बाद में इन समाजवादियों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। वे अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बना लिये। इसमें विचारों की भिन्नता होती तो पार्टी टूट जाती रही। भूपेंद्र नारायण मंडल आजीवन डॉ राम मनोहर लोहिया के साथ रहे। बिहार पार्टी को संगठित करने में भूपेंद्र बाबू की अहम भूमिका थी। बाद में यहां के प्रांतीय सचिव भी बनें। वे स्वतंत्र भारत में भी आम लोगों के हित में आंदोलन करते रहे और जेल जाते रहे। उस समय देश में कांग्रेस के बाद सोशलिस्ट पार्टी ही सबसे बड़ी पार्टी थी। 1959 में वे पार्टी के अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए। डॉ राम मनोहर लोहिया, रवि राय, मधु दंडवते, मधु लिमये समेत कई वरिष्ठ नेता इनके अध्यक्षीय भाषण की मौलिकता को समझकर इनकी भरपूर प्रशंसा करते थे।
उनका हृदय विशाल था। वे स्वयं की अपेक्षा दूसरों के ही हितों की प्राथमिकता देते थे। प्रथम चुनाव में वे स्वयं अपने विधानसभा की अपेक्षा पार्टी के दूसरे उम्मीदवारों और खासकर लोक सभा से किराय मुसहर के लिए ही अधिक प्रचार किया। वे हार गये, लेकिन किराय मुसहर और तनुकलाल यादव को उन्होंने जीता लिया। लोक सभा के उपचुनाव में वे अपने स्थान पर जे.बी. कृपलानी को खड़ा किया और उन्हें भी विजयी बना लिया। विधानसभा के अध्यक्ष पद पर धानुक जाति के धनिकलाल मंडल को आसीन कर ही उन्होंने दम लिया। मधेपुरा में कॉलेज खोलने का संकल्प लिया। लेकिन कॉलेज का नाम ठाकुर प्रसाद रखा गया। उनके पुत्र कीर्ति नारायण मंडल ने गांव की पचास बीघा जमीन और 25 हजार देने की घोषणा की थी।
विद्वता में उनकी एक विशिष्ट पहचान रही है। उन्होंने सभी तरह की पुस्तकों का अध्ययन किया। सभी विचारों पर चिंतन कर वे अपना विचार बना लेते थे। सामंतवाद, पूंजीवाद समाजवाद, साम्यवाद और अधिनायकवाद सभी के विभिन्न पक्षों की विवेचना कर ही अपने देश की दशा पर बात रखते थे। उनके विचारों में मौलिकता रहती थी। पार्टी के सम्मेलन में नेतागण उनकी मौलिक विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे। उनके भाषणों में विचारों की व्यापकता और मौलिकता देखी जा सकती है। उनके इन्हीं गुणों के कारण सभी सदनों में उन्हें अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिया जाता था। वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक न्याय की अनिवार्यत और उसी के अनुरूप आर्थिक, सांस्कृतिक एवं अन्य नीतियों को प्रभावकारी रूप में प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते थे।