बिहार के एक मतदाता के रूप में आपको और हमको एक विधायक चुनने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। अगला छह माह हम सबके लिए उत्सव का अवसर है। सबसे लंबा त्योहार। हर पांच साल पर विधायक के लिए वोट देने का त्योहार। हम मतदाता के रूप में विधायक चुनते हैं और विधायक मिलकर मुख्यमंत्री चुनते हैं। बस यहीं आपका और हमारा दायित्व पूरा हो जाता है। एक वोटर के रूप में एक व्यक्ति को उत्सव मानने का अवसर पांच साल में एक बार आता है। लेकिन एक विधायक के लिए हर दिन उत्सव है। सरकार बनाने का उत्सव, सरकार गिराने का उत्सव। मुख्यमंत्री भी पांच साल में शपथ पर शपथ लेने के लिए स्वतंत्र हैं। हाथ सिर्फ वोटर का बंधा है। विधायक और मुख्यमंत्री अस्मिता, अस्तित्व और अधिकार के लिए निर्बंध हैं, कोई बंधन नहीं।

विदाई की ओर बढ़ रही सत्रहवीं विधान सभा कई मामलों के लिए अभिशप्त भी है। इसी विधान सभा ने तीन मुख्यमंत्री, तीन स्पीकर और पांच उपमुख्यमंत्री बिहार पर थोप दिये हैं। यही विधान सभा वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच असंसदीय आचरण का गवाह बनी है तो सत्ता पक्ष द्वारा ही स्पीकर का बहिष्कार का इतिहास भी बनाया है। संभवत: पहली बार किसी मुख्यमंत्री के संबोधन को कार्यवाही से हटाने का नियमन भी इसी विधान सभा में दिया गया। सत्रहवीं विधान सभा ने एक ऐतिहासिक काम भी किया है। इस विधान सभा में जाति जनगणना का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। जनगणन की रिपोर्ट भी सदन पटल पर रखी गयी। इस रिपोर्ट के आलोक में प्रदेश में विभिन्न जातीय समूहों के लिए आरक्षण की सीमा 60 से बढ़ाकर 75 प्रतिशत की गयी, हालांकि कोर्ट ने इसे रद कर दिया था।
गांवों में कहावत है- स्पीकर मेहरबान तो गधा पहलवान। संसदीय लोकतंत्र में सांसद या विधायकों की खरीद-बिक्री को हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। लेकिन अब सांसद या विधायकों को घोड़ा कहना भी घोड़ा प्रजाति का अपमान है। इनके लिए गधा कहना ज्यादा उपयुक्त लगता है। पांच साल तक गधा की तरह सरकार को ढोना ही इनका दायित्व है। गधों को अनुशासित रखने के लिए धोबी होता है। स्पीकर धोबी की भूमिका में होते हैं। धोबी की इच्छा हो तो ईंटा ढोने वाला गधा गोबर ढोने लगे तो भी संसदीय लोकतंत्र मर्यादित रहता है। सत्रहवीं विधान सभा में बिहार कुछ इसी तरह की लोकतांत्रिक मर्यादाओं से कराह रहा है।
सत्रहवीं विधान सभा विसर्जन की देहरी पर खड़ी है। लगभग आठ विधान सभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुआ। यह संयोग रहा कि कुढ़नी को छोड़कर विधान सभा सीट उसी जाति से भरी गयी, जिस जाति के विधायक ने खाली की थी। कुढ़नी मल्लाह के बाद बनिया के खाते में चली गयी थी। इस विधान सभा का मानसून सत्र बचा हुआ है। संभवत: मानसून सत्र जून में ही बुलाया जा सकता है। आमतौर सत्र जुलाई-अगस्त में होता है।
चुनाव पूर्व अब गठबंधनों में फेरबदल की कोई संभावना नहीं है। नीतीश अब भाजपा को नहीं छोड़ने वाले हैं। वजह साफ है कि मुख्यमंत्री कुछ आईएएस अधिकारियों की इच्छा पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे अधिकारी मन-मिजाज और जाति से भाजपा के साथ हैं। राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा तो भाजपा के ही प्रोडक्ट हैं। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में दसवीं बार शपथ दिलाएगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। हालांकि तेजस्वी यादव की राजनीतिक संभावना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।
विधान सभा चुनाव को लेकर निर्वाचन आयोग हर स्तर पर तैयारी पूरी कर रहा है। पुनरीक्षित मतदाता सूची का प्रकाशन आयोग ने जनवरी महीने में किया था। इस मतदाता सूची के अनुसार बिहार में पौने आठ करोड़ से अधिक मतदाता हैं। मतदाताओं के नाम जोड़ने की प्रक्रिया जारी है। चुनाव की तारीख तक वोटरों की संख्या आठ करोड़ की संख्या को पार कर सकती है। यही मतदाता अपने-अपने क्षेत्र के विधायक चुनेंगे और यही विधायक सरकार चुनेंगे।