बिहार में गांव की सत्ता की पहली इकाई है ग्राम पंचायत। इस स्तर पर दो तरह की सत्ता संरचना है। पहली है ग्राम सभा और दूसरी पैक्स यानी प्राथमिक कृषि ऋण सहयोग समिति। ग्राम सभा पंचायती राज विभाग के तहत काम करती है, जबकिपैक्स सहकारिता विभाग के तहत काम करती है। पंचायती राज अधिनियम के तहत पंचायत प्रमुख यानी मुखिया के पद पर आरक्षण लागू है। एक जातीय कोटा है और दूसरा कोटा के अंदर महिला कोटा। मतलब यह कि मुखिया पद के लिए बिहार में अनुसूचित जाति, जनजाति और अतिपिछड़ा वर्ग का कोटा निर्धारित है। यह आरक्षण राज्य सरकार के आरक्षण नियम के तहत तय है। अन्य सीटों को सामान्य श्रेणी का माना जाता है। इसमें सभी जाति समूह में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसके विपरीत पैक्स की समितियों में आरक्षण का कोटा तय है। लेकिन पैक्स अध्यक्ष पद अनारक्षित है। इस पद पर किसी जाति समूह के लिए आरक्षण नहीं है।
बिहार की एक सामाजिक संस्था है वीरेंद्र यादव फाउंडेशन। यह एक ट्रस्ट है, जो नीति आयोग में पंजीबद्ध है। यह ट्रस्ट समय-समय पर सामाजिक सरोकारों के विषयों पर अध्ययन करता रहता है। इस ट्रस्ट ने ग्रामीण सत्ता में आरक्षण के प्रभाव का अध्ययन किया। इसके लिए पंचायत स्तरीय इकाई ग्राम सभा और पैक्स को चुना।
वीरेंद्र यादव फाउंडेशन की सचिव संजू कुमारी ने बताया कि नमूना के तौर पर ट्रस्ट ने औरंगाबाद और रोहतास जिले को चुना। यह दोनों जिले दक्षिण बिहार का हिस्सा हैं और दोनों जिलों में यादव और राजपूत जाति का प्रभाव माना जाता है। कुछ-कुछ प्रखंडों के हिसाब से अन्य जातियों का प्रभाव भी देखा जा सकता है। औरंगाबाद जिले में 202 पंचातय और 204 पैक्स हैं। इसी तरह रोहतास जिले में 229 पंचायत और 247 पैक्स हैं। पंचायत और पैक्स की संख्या में कुछ अंतर की वजह है कि कुछ पंचायत को नगर पंचायत बना दिया है, लेकिन उनकी पैक्स पूर्ववत कायम है। इसलिए पंचायत की तुलना में पैक्सों की संख्या कुछ अधिक दिख रही है।
वीरेंद्र यादव फाउंडेशन ने अपने अध्ययन के दौरान दोनों जिलों के सभी पैक्स अध्यक्ष और मुखिया का प्रखंड एवं पचायतवार जाति सर्वे किया। जाति के हिसाब से पंचायतवार सूची भी बनायी। वीरेंद्र यादव फाउंडेशन एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता है। अपने अध्ययन की रिपोर्ट और पंचायतवार सूची भी अप्रैल अंक में प्रकाशित की है। डाटा तैयार करने के दौरान चार सौ से अधिक लोगों से बातचीत करनी पड़ी। इस दौरान लोगों की राय, सामाजिक बनावट और जातिगत बसावट को लेकर कई रोचक जानकारी भी हासिल हुई। जैसे औरंगबाद जिले में गया-डिहरी रेलवे लाईन के दक्षिण दिशा में राजपूतों का प्रभाव दिखता है तो उत्तर दिशा में यादवों का प्रभाव दिखता है। औरंगाबाद जिले में भूमिहारों की बहुलता है तो रोहतास जिले में ब्राह्मणों की। अनुसूचिज जाति के लिए आरक्षित सीट पर चमार और दुसाध प्रभावी दिखे तो अतिपिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सीटों पर बनियों का दबदबा दिखा। सामान्य सीटों पर दोनों जिलों में राजपूत और यादवों का प्रभुत्व दिखता है। हालांकि कोईरी, कुर्मी, भूमिहार, ब्राह्मण भी है, लेकिन तुलनात्मक रूप से कम हैं।
वीरेंद्र यादव फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि बड़ी आबादी वाली जाति मुखिया और पैक्स अध्यक्ष दोनों पदों पर बढ़त बनाये हुए हैं। पैक्स अध्यक्ष के पद अनारक्षित होने के कारण दलित और अतिपिछड़ी जाति की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। औरंगाबाद और रोहतास दोनों जिलों को मिलाकर पैक्स अध्यक्ष की 58 फीसदी सीटों पर यादव और राजपूतों ने कब्जा कर रखा है। अन्य पदों पर भूमिहार समेत अन्य पांच-छह जातियों ने कब्जा कर रखा है। इसमें आरक्षित वर्ग समूह के एकाध लोग ही हैं। लेकिन आरक्षण का व्यापक असर ग्रामीण सत्ता पर देखने का मिलता है। मुखिया पद पर आरक्षण का असर साफ-साफ दिखता है। मुखिया पद के सामान्य कोटि की सीटों पर उन्हीं 7-8 जातियों का ही कब्जा है, जिनका आधिपत्य पैक्स अध्यक्ष पद पर है।
मुखिया पद पर आरक्षण असर है कि आरक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व निर्धारित हुआ है। कुछ सामान्य सीटों पर भी आरक्षित वर्ग के लोग निर्वाचित हुए हैं, हालांकि इनकी संख्या बहुत कम है। आरक्षण तीन श्रेणी में है। अनुसूचित जाति, जनजाति और अतिपिछड़ा वर्ग। आदिवासी का आरक्षण रोहतास जिले पहाड़ी इलाकों में है। उनके लिए 2 या 3 सीट ही आरक्षित है। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर बड़ी संख्या में चमार और दुसाध जाति के लोग निर्वाचित हुए हैं। इसकी वजह है कि इनकी आबादी काफी ज्यादा है और ये अन्य अनुसूचित जातियों की तुलना में आर्थिक रूप से भी संपन्न हैं। इस कारण इनकी जीत आसान हो जाती है। हालांकि एका-दुका दूसरी जाति के भी दलित जीतते रहे हैं।
अतिपिछड़ा यानी ईबीसी के नाम पर बनियों की बहार है। बनियों की आबादी ईबीसी की अन्य जातियों की तुलना में अधिक होने के साथ ही वे आर्थिक रूप से साधन संपन्न हैं। इसका लाभ भी चुनाव में मिलता है।
वीरेंद्र यादव फाउंडेशन की सचिव संजू कुमारी ने बताया कि आरक्षण के कारण ग्रामीण सत्ता में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है, लेकिन निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी नहीं के बराबर होता है। हर निर्णय के लिए वे पति या परिजन पर निर्भर रहती हैं। वीरेंद्र यादव फाउंडेशन ने अपने अध्ययन के दौरान पाया था कि फोन पर बातचीत के दौरान महिला मुखिया को जब भी फोन लगाया तो उनके पति या परिजन ने ही फोन उठाया। महिला मुखिया के नाम सरकारी डाटा में दर्ज मोबाइल नंबर में उनके पति की तस्वीर दिखती है। एकाध महिला ने फोन उठा भी लिया तो बात करने लिए फोन पति को बढ़ा दिया।
बिहार के संदर्भ में बात करें तो पिछले 35 वर्षों से पिछड़ों का राज है। पिछले 20 वर्षों से महिलाओं को आरक्षण मिल रहा है। यह किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए बड़ा अवसर और समय है। लेकिन वीरेंद्र यादव फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि पति का प्रभुत्व और जाति की दबंगता दरकी जरूर है, लेकिन खत्म नहीं हुई है। पति का प्रभुत्व हर जाति समूह में बराबर रूप से व्याप्त है, लेकिन जाति की दबंगता जाति विशेष की आबादी से प्रभावित है। पिछले 35 वर्षों में ग्रामीण सत्ता में सवर्णों के आधिपत्य को यादव जाति ने चुनौती दी है। उनके प्रभाव को पीछे धकेला है, लेकिन खुद नया प्रभुत्व वाला वर्ग के रूप में स्थापित हो गया है। जातीय जड़ता टूटी नहीं है, बस स्वरूप बदल लिया है। अनुसूचित जाति में चमार-दुसाध पहले से प्रभुत्व वाला समूह रहा है और उस समूह में उसकी प्रभुता कायम है।
वीरेंद्र यादव फाउंडेशन ने पंचायतों के माध्यम से जातीय प्रभुत्व को समझने के लिए अध्ययन किया था। आंकड़ों का विश्लेषण किया था। ये आकंड़े बताते हैं कि जाति की आबादी और आर्थिक संसाधन आज भी सामाजिक और राजनीतिक सत्ता को व्यापक स्तर पर प्रभावित कर रहा है। इसमें बदलाव के लिए राजनीतिक पहल से अधिक सामाजिक पहल की आवश्यकता है। जातीय उग्रता या जातीय कुंठा से बंधा समाज आज भी अपने दायरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। शिक्षा ने डिग्री का बोझ बढ़ाया है, लेकिन जातीय आग्रहों से बंधी जड़ता को चुनौती देने को तैयार नहीं है। व्यक्ति जातीय दायरे में ही सत्ता की राह तलाश रहा है। यह राह एक व्यक्ति के लिए सरल हो सकती है, लेकिन समूह के व्यापक सरोकार के लिए राह को अभी और सुगम बनाना है। त्रासदी यह है कि इसके लिए कोई पहल होती नहीं दिख रही है।