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Home जाति

खबरों के बाजार में निर्न्‍यूज हो जाने की त्रासदी

आज कुछ बेमतलब की बातें

Birendra Yadav by Birendra Yadav
May 23, 2025
in जाति, बिहार, राजनीति
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खबरों के बाजार में निर्न्‍यूज हो जाने की त्रासदी
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वीरेंद्र यादव न्‍यूज के होली विशेषांक प्रकाशित करने के बाद हम लगभग अलबला गये हैं। कोई काम नहीं सूझ रहा है। अप्रैल और मई अंक प्रकाशित किया। अप्रैल अंक में औरंगाबाद और रोहतास जिले के मुखिया और पैक्‍स अध्‍यक्ष की जाति डायरेक्‍टरी प्रकाशित की तो मई अंक में सभी 243 विधान सभा क्षेत्रों में 10 प्रमुख, दबंग और बड़ी आबादी वाली जाति के वोटरों की संख्‍या प्रकाशित की। क्षेत्र विशेष में कई प्रभावी जातियों को अपने डाटा में समाहित नहीं कर पाये। जैसे मगध में कहार, कोसी-मुंगेर में धानुक, सीमांचल में गंगोता, शाहाबाद में नोनिया अपने आप में बड़ी आबादी हैं, लेकिन हमारी पत्रिका के आंकड़ों में जगह नहीं पा सके। जातियों की बनावट और बसावट को लेकर भी हमने कोई बड़ा काम नहीं किया है, जबकि यह बिहार में संदर्भ में बहुत जरूरी था। यह इतना समय साध्‍य और खर्चीला काम है कि इसको करना भी आसान नहीं है। यह भी तय है कि कभी इस दिशा में कोई काम करेंगे तो हम ही।
हम खबरों के बाजार का आदमी हैं। खबरों से हमारी दिनचर्या बंधी है। इसके बावजूद खबरों में कोई रुचि नहीं है। न अखबार पढ़ना, न टीवी देखना और न यूट्यूब में रुचि है। मतलब यह कि खबरों की हर राह को हमने बंद कर रखा है। एकदम निर्न्‍यूज, बिना न्‍यूज के। जब भी हम कभी सामाजिक, राजनीतिक या पत्रकारों के समूह के साथ होते हैं, तो सिर्फ सुनते हैं। साझा करने के लिए मेरे पास कोई सूचना ही नहीं होती है। इसी समूह से हासिल सूचनाओं तक ही हमारी खबरों की दुनिया है। यह बताना भी जरूरी है कि समूह में खबर साझा करने वाले व्‍यक्ति की जाति के हिसाब से उनकी बतायी सूचनाओं का मायने निकाल लेते हैं।
खबरों के बाजार और सरोकार के बीच हम खबर लिखने के लिए जो विषय चुनते हैं, उसके लिए जितना जरूरी हो, पढ़ते हैं, आकड़ा व तथ्‍य एकत्रित करते हैं। जब हम औरंगाबाद और रोहतास जिले के मुखिया और पैक्‍स अध्‍यक्ष की जाति डायरेक्‍टरी की तैयारी कर रहे थे, तब लगभग एक माह उसी में डूबा रह गया था। लगभग 900 व्‍यक्ति की जाति का पता लगाना और फिर उसकी क्रॉसचेकिंग बड़ा मुश्किल काम था। इसी तरह हर व्‍यक्ति का मोबाइल नंबर टाईप करना भी आसान नहीं था। इसके बावजूद एक बढि़या और जानकारी पूर्ण अंक निकाला। यह पूरे बिहार में अपने आप में पहला काम था। इसके माध्‍यम से हमने यह बताया कि पंचायती राज यानी ग्रामीण सत्‍ता में किन जातियों का बोलबाला है। कैसे कुछ बड़ी आबादी और संसाधन वाली जातियां ग्रामीण सत्‍ता में काबिज है। इसके साथ पैक्‍स अध्‍यक्ष और मुखिया के तुलनात्‍मक अध्‍ययन से यह बताया कि आरक्षण होने और नहीं होने से ग्रामीण सत्‍ता कैसे प्रभावित होती है। मुखिया पद पर आरक्षण के कारण सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर जातियां भी प्रतिनिधित्‍व पा लेती हैं, लेकिन पैक्‍स अध्‍यक्ष पद पर आरक्षण नहीं होने के कारण कुछ दबंग, बड़ी आबादी वाली और साधन संपन्‍न जातियां ही जीत हासिल करती हैं। जो जातीय विविधता मुखिया पद पर है, वह डायवर्सिटी पैक्‍स अध्‍यक्ष पद पर नहीं है।
हमने अपना मई अंक सभी विधान सभा क्षेत्रों में जातीय वोटरों पर केंद्रित किया है। जाति जनगणना के बाद इस तरह का डाटा पहली बार सामने आया है। इसके पहले भी वोटरों का जातीय डाटा वीरेंद्र यादव न्‍यूज ही प्रकाशित करता रहा था। इस बार ज्‍यादा व्‍यवस्थित और व्‍यापक अध्‍ययन-सर्वे पर आधारित है। हमने 10 जातियों का डाटा ही प्रकाशित किया है। इसकी वजह पेज पर तय जगह और तकनीकी थी। यह सच है कि बिहार में कुछ जातियों का ही राजनीतिक बाजार है। हमने बाजार की जरूरत का ध्‍यान रखकर ही 10 जातियों को फोकस किया है। एक सच यह भी है कि इस तरह के डाटा के ग्राहक भी इन्‍हीं 10 जातियों के लोग हैं। उन्‍हीं में सत्‍ता की भूख है और वे ही भूख की तृप्ति के लिए निवेश करने का साहस रखते हैं। इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। उनकी संख्‍या काफी सीमित है।
दरअसल बिहार की राजनीति ही 10 जातियों की रखैल हो गयी है। इन्‍हीं 10-12 जातियों की गोदी में सत्‍ता उछल-कूद करती है। विधान सभा क्षेत्र का नाम, व्‍यक्ति का नाम और पार्टी भले बदल जाये, लेकिन जाति वही दर्जन भर जातियों के घेरे में बंधी रहती है। एक पत्रकार या लेखक के रूप में हम भी इससे मुक्‍त नहीं हैं। हमें भी बाजार के अनुरूप अपने लिए सब्‍जेक्‍ट, डाटा और हेडिंग का चयन करना पड़ता है। बिहार के पाठक भी जातियों के दायरे में बंधे हुए हैं। वे भी जाति से जुड़ी खबरों को पढ़ना चाहते हैं। यूट्यूब में जाति से जुड़ी खबरों के व्‍यूअर्स काफी मिलते हैं। व्‍यूअर्सशिप में जातीय स्‍तरीकरण अपने तरह का है।
एक पत्रकार के रूप में हम 2001 में पटना आये थे। 1995 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय, भोपाल में पढ़ाई करने गये थे और 2000 तक वहीं रहे। जब 2001 में पटना आये तो अखबारों की दुनिया हमारे लिए एकदम नया था। एकदम नया बाजार था। अखबारों के कार्यालयों में जातिवाद कूट-कूट कर भरा था, लेकिन खबरों से जाति गायब थी। एकाध पत्रकार जाति की बात कर भी रहे थे तो जातीय वर्ग के हिसाब से। हमने एकदम अछूता विषय जाति को अपना विषय बनाया। सबसे पहले पत्रकारों के बीच पिछड़ावाद की नयी खेमाबंदी शुरू की। पिछड़ी जाति के कई पत्रकार जाति बदलकर अखबारों में काम कर रहे थे। कई सरनेम का लाभ उठा रहे थे। लेकिन हमारे साथ उन्‍हें जाति की असलियत साझा करने में कोई दिक्‍कत नहीं थी। इस प्रकार हम पिछड़ी जाति के पत्रकारों के बीच पुल बनते गये। दलितों की संख्‍या न के बराबर थी। मीडिया हाउस में पिछड़ावाद को उभारने में हमने एक माध्‍यम का काम किया। दूसरी ओर खबरों के स्‍तर पर जाति विषय को प्रमुखता देने लगे थे। हालां‍कि अखबारों में इसके लिए सीमित संभावना थी, लेकिन वीरेंद्र यादव न्‍यूज ने खबरों में जाति को प्रमुख विषय बना दिया। उम्‍मीदवारों की जाति, विधायकों की जाति, मंत्रियो की जाति और उससे आगे बढ़कर निर्वाचित उम्‍मीदवारों की जाति स्‍ट्राईक तक खबरें पहुंच गयीं।
हम एक पत्रिका निकालते थे आह्वान। हमने उसके 2010 में एक अंक में 2005 में निर्वाचित विधायकों की व्‍यक्तिवार जातीय सूची प्रकाशित की थी। जब सूची प्रकाशित की थी, उस समय विधान सभा चुनाव होने वाला था। इस तरह की सूची किसी पत्रिका में पहली बार प्रकाशित हुई थी। 2015 में वीरेंद्र यादव न्‍यूज के प्रकाशन के साथ तो खबरों का प्रमुख विषय जाति ही बन गया।
आज जब हम आपसे बेमतलब की बात कर रहे हैं तो बात बहुत लंबी हो गयी। इन बेमतलब की बातों के माध्‍यम से हमने अपनी कई संवेदनाओं का साझा किया। पेशागत व्‍यावहारिकता के बारे में बात की। हमारी यह त्रासदी किसी एक व्‍‍यक्ति की नहीं है। हर व्‍यक्ति अपनी-अपनी सीमाओं में नयी संभावनाओं की तलाश में रहता है। संभावना कभी हासिल होती है, कभी हाथ से फिसल जाति है। हासिल करने की खुशी और फिसल जाने का गम के बीच हर आदमी उम्‍मीद की राह आगे बढ़ते रहता है। इसी राह पर हम भी हैं और आप भी।

Tags: kuch bematalab ki baten
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