घटना 20 अप्रैल के आसपास की है। हम रोहतास जिले के राजपुर में आयोजित वीरेंद्र यादव न्यूज के पैक्स एवं मुखिया डायरेक्टरी के लोकार्पण (तिथि : 26 अप्रैल, 25) को लेकर आसपास के प्रखंडों में जनसंपर्क कर रहे थे। एक दिन हम नोखा से बिक्रमगंज की ओर जा रहे थे। रास्ते में संझौली के पास एक स्कूल नजर आया। उनके द्वार पर लिखा था- कुर्मी क्षत्रिय उच्च माध्यमिक विद्यालय संझौली। नाम पढ़कर स्कूल देखने की इच्छा हुई। हमने फटफटिया मुड़ाया और स्कूल के पास पहुंचे। गाड़ी को खड़ाकर स्कूल परिसर में पहुंचे। स्कूल बंद हो रहा था। स्कूल में कुछ शिक्षक ही बचे हुए थे। हम स्कूल का भवन देखते हुए प्राचार्य के कक्ष में पहुंचे। वहां एक व्यक्ति बैठे हुए थे। बातचीत में उन्होंने बताया कि वे स्कूल के प्रिंसिपल हैं धर्मेंद्र कुमार। हम उनके सामने बैठ गये। बात नये सिरे से शुरू हुई। हमने अपना परिचय बताते हुए वीरेंद्र यादव न्यूज की कॉपी उनकी ओर बढ़ाया। उन्होंने कॉपी देखने के बाद कहा कि आप पत्रिका वाले वीरेंद्र यादव हैं। जिसमें चुनावी डाटा बहुत रहता है। हमने कहा – जी। पत्रिका के संबंध में और जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि पिछले विधान सभा चुनाव में आपने पत्रिका में विधान सभावार जातीय वोटरों की संख्या प्रकाशित की थी। उसको हमने अपने मोबाईल में सेव रखा है। फिर उन्होंने मोबाईल में सुरक्षित रखे गये डाटा को दिखाया। यह डाटा आपका ही है न। हमने फिर हामी भरी। थोड़ी देर बातचीत के बाद हम वहां से आगे बढ़ लिये। स्कूल छोड़ने से पहले प्राचार्य धर्मेंद्र जी के साथ एक तस्वीर भी उतारी।

यह छोटी सी मुलाकात अनायास थी। स्कूल का नाम पढ़कर उसके बारे में जानने की रुचि हुई। जानने की इस लालसा ने एक जानकार से मुलाकात करवा दी। दो अपरिचित व्यक्ति को जोड़ने की कड़ी का काम कर गया चुनावी व जातीय डाटा। दरअसल यह एक पाठक का सरोकार था। तथ्यों के प्रति पाठक की गहरी रुचि थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि तथ्यों की सार्वभौमिकता, आंकड़ों की उपयोगिता और पाठके के साथ सीधा जुड़ाव।

पिछले विधान सभा चुनाव में वोटरों के जातीय आंकड़ों को प्रकाशित करने के पांच साल बाद हमने फिर वीरेंद्र यादव न्यूज के मई अंक में विधान सभावार जातीय वोटरों की संख्या प्रकाशित की है। यह पिछली बार की तुलना में ज्यादा व्यापक, ज्यादा शोधपूर्ण और ज्यादा उपयोगी है। इन आंकड़ों की उपयोगिता को देखते हुए हमने यह तय किया था कि इस बार मई अंक प्रिंट नहीं करवाएंगे और सीधे पुस्तक ‘राजनीति की जाति पार्ट 2’ में समाहित कर बेचेंगे। इस पुस्तक की आत्मा इसी डाटा में समाहित है। इसलिए लोग खरीदेंगे भी। लोग खरीद भी रहे हैं। हमने जो पीडीएफ फाईल अपने पाठकों के लिए जारी किया था, उसके हर पन्ने में कुछ प्रमुख जातियों का डाटा ढक दिया था। किताब बेचने की यह रणनीति थी।
पुस्तक बेचने की यह रणनीति कहीं न कहीं हमें कचोट रही थी, अपमानित कर रही थी। एक साथी मुकेश जी ने इस रणनीति को पाठकों के साथ अन्याय बताया। इसी संदर्भ में कुर्मी क्षत्रिय उच्च माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य धर्मेंद्र जी के डाटा सुरक्षित रखने की जानकारी यह बताने के लिए काफी थी कि पत्रिका में दी गयी सूचना, खबर या डाटा का पाठक के साथ अपना सरोकार होता है, जुड़ाव होता है। यह भी कह सकते हैं कि पत्रिका में मूल रूप से प्रकाशित हर डाटा पर पाठक का अधिकार होता है। उस अधिकार से हम अपने पाठकों को वंचित नहीं कर सकते हैं।
इसी संदर्भ में पाठकों के साथ हम यह साझा करना चाहते हैं कि आपके सरोकार, जुड़ाव और अधिकार का सम्मान करते हुए हमने अपना मई अंक (जिसमें विधान सभावार जातीय वोटरों का डाटा प्रकाशित है।) प्रिंट करवा दिया है और अब पाठकों के लिए उपलब्ध है अपने मूल रूप में डाटा के साथ। पत्रिका के डिजिटल एडिशन में भी अब पूरा डाटा उपलब्ध है। ढके हुए डाटा को ओपेन कर दिया है। यह डाटा हमारी पुस्तक राजनीति की जाति पार्ट 2 (कीमत 5500 रुपये) में भी समाहित है। इस पुस्तक में चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिए जरूरी डाटा उपलब्ध है। पिछले 5 सालों का वीरेंद्र यादव न्यूज का सभी अंक एक साथ प्रिंट है। इस पुस्तक में वह हर डाटा उपलब्ध है, जो एक टिकट के दावेदार के लिए जरूरी है।
एक संपादक जब दुकानदार बनता है तो उसे कई तरह के अंतर्विरोधों का सामना करना पड़ता है। खबरों का सरोकार और खबरों का बाजार दो अलग-अलग चीज है। इसे एक साथ साधना मुश्किल है। पत्रिका के मई अंक को हम इसलिए नहीं प्रिंट करवा रहे थे कि जब जातीय डाटा लोगों को मिल ही जाएगा तो 5500 रुपये में पुस्तक खरीदेगा कौन। इस अवधारणा को आप खबरों का बाजार कह सकते हैं। लेकिन खबरों का अपना सरोकार भी है, खबर पाठकों का अधिकार भी है। यही खबर पाठकों को जोड़ती और बांधे भी रखती है। खबरों पर पहला अधिकार पाठकों का है और उस अधिकार को बाधित या सीमित नहीं कर सकते हैं। पाठकों को उससे वंचित नहीं कर सकते हैं। इसलिए अंतत: पत्रिका का मई अंक अब आपके हाथों में है। हम यह स्वीकार करते हैं कि अपने पाठकों के अधिकार और सरोकार के आगे हम हार गये।