वीरेंद्र कुमार यादव: स्वतंत्र पत्रकार। अब हमारी यही पहचान है। सरकारी दस्तावेजों में हमारी यही आईडेंटिटी है। केंद्र सरकार की मीडिया एजेंसी पीआईबी या राज्य सरकारों के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग अपने क्षेत्राधिकार में कार्यरत पत्रकारों को अधिमान्यता देती है, जिसे अंग्रेजी में एक्रिडियशन कहते हैं। अधिमान्य पत्रकार केंद्र या राज्य सरकार द्वारा पत्रकारों को देय सुविधाओं के हकदार हो जाते हैं। इसमें सबसे बड़ी सुविधा होती है ट्रेनों में रियायती दर पर टिकट। यह सुविधा अभी बंद है। इसके साथ ही राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान कवरेज के लिए उन्हीं पत्रकारों को कार्ड जारी होता है, जो अधिमान्य होते हैं। इसके अलावा भी इस कार्ड की कई उपयोगिता है। यह कार्ड धारक के लिए पहचान दस्तावेज का भी काम आता है, क्योंकि यह कार्ड सरकार बनाती है।
पिछले 10 वर्षों से हमारा यह कार्ड बनता रहा है। इसकी वैधता दो वर्षों की होती है। दो वर्ष बाद इसे फिर से बनवाना पड़ता है। इसकी भी अपनी प्रक्रिया और अर्हता है। खास बात यह है कि पहले हम किसी मीडिया संस्थान के प्रतिनिधि होते थे, अब स्वतंत्र पत्रकार (फ्रीलांसर) के रूप में अधिमान्य हुए हैं।
आप सोच रहे होंगे कि यह कौन सा ‘गोवार-प्रवचन’ है। आप अपनी जगह पर सही हैं। हम यह स्टोरी उन पत्रकारों के लिए लिख रहे हैं, जो मीडिया के क्षेत्र में आकर भी अपनी जातीय कुंठा से उठ नहीं पाते हैं। यह कुंठा सवर्ण पत्रकारों में अलग तरह की है, गैरसवर्ण पत्रकारों में अलग तरह की है। सवर्णों की बात करें तो भूमिहार को लगता है कि राजपूत लंगी मार रहा है तो राजपूत को लगता है कि ब्राह्मण लंगड़ी फंसा रहा है। पटना आज में कभी भूमिहारों के लिए पाबंदी थी और पटना में भास्कर आया तो राजपूतों की चांदी हो गयी। इसके विपरीत गैरसवर्णों पत्रकारों की कुंठा और दर्द अलग तरह का है। गैरसवर्णों को लगता है कि सवर्ण उनकी राह में बेड़ा (अवरोध) लगा देते हैं। इन सब अंतर्विरोधों के बावजूद बड़ी संख्या में गैरसवर्ण पत्रकार अखबार और चैनलों में कार्यरत हैं। कई बड़े पदधारक भी हैं। लेकिन कुंठा वही है कि सवर्ण उन्हें आगे नहीं आने देते हैं।
हिंदुस्तान पटना में हम आये थे तो हमें यह मान लिया था कि लालू यादव की पैरवी से आया होगा। नाम में यादव लगा होने के कारण धारणा बनाने का व्यापक आधार था। उसी समय हमने एक खबर त्रिवेणी संघ से जुड़ी हुई लिखी थी। इस अखबार में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार ने गलियारे में बातचीत करते हुए कहा कि आपने अच्छा लिखा है। हम भी त्रिवेणी संघ में आते हैं। कुशवाहा जाति के हैं। किसी से कहिएगा नहीं, सब हमको राजपूत समझता है। इस उदाहरण के माध्यम से हम सिर्फ यह बताना चाहते हैं कि कुंठा का स्वरूप और स्तर क्या रहा है।
लेकिन हम इन कुंठाओं को सीरे से खारिज करते हैं। हमारी वैचारिकी या कार्यशैली में कभी कुंठा हावी नहीं हुई। दरअसल यह कुंठा हमारे अंदर का भय है। वह पैर बढ़ाने से पहले खींच लेने को विवश करती है। यह प्रवृत्ति गैरसवर्ण पत्रकारों में ज्यादा होती है। इसलिए बहुत सारे गैरसवर्ण पत्रकार इस बात का रोना भी रोते हैं कि उन्हें उनके ही संस्थान में कार्यरत सवर्ण साथी प्रताडि़त भी करते हैं। मीडिया संस्थानों में ऐसा होता है। लेकिन प्रताड़ना का स्वरूप अंत:जातीय और अंतर्जातीय दोनों तरह का होता है। इसमें कोई भी किसी को शिकार बना सकता है। इस कोशिश में एक राजपूत दूसरे राजपूत पर तलवार चला सकता है या एक भूमिहार दूसरे भूमिहार पर फरसा भांज सकता है।
हमारी खबरों और आलेखों को पढ़ने वाले लोग यह समझते हैं कि खबरों में आक्रमकता के साथ पाठकों के बीच स्वीकार्यता बनी हुई है तो उसके पीछे की सबसे बड़ी ताकत है सरल भाषा, सहज प्रवाह और विषय की जीवतंता। आज हम फ्रीलांसर के रूप में खुद को स्थापित कर पाये हैं तो इसकी वजह है विपरीत और अभावपूर्ण परिस्थितियों में पेशे के साथ जुड़े रहना।
हम खुद को गैरसवर्ण पत्रकारों का प्रतिनिधि नहीं मानते हैं। लेकिन मीडिया के बाजार में आ रहे गैरसवर्ण पत्रकारों को यह समझना चाहिए कि यदि मीडिया में आ रहे हैं तो इसकी चुनौतियों को झेलने के लिए तैयार चाहिए। आपके लिए सवर्ण जातियों की तुलना में मीडिया जगत की राह ज्यादा मुश्किल हो सकती है, लेकिन रास्ता बंद नहीं है। यहां न हताश है और न निराशा है। पारिवारिक पृष्ठभूमि और आर्थिक संसाधन में सवर्ण पत्रकार भारी पड़ सकते हैं। इसके साथ आपको यह भी समझना चाहिए कि आपकी पहचान पृष्ठभूमि और संसाधनों से नहीं मिलती है। अपनी पहचान कामों से मिलती है। इसके लिए आपको आत्मविश्वास के साथ अपनी जिम्मेवारी और काम के प्रति ईमानदारी रहना होगा। मेरी दादी कहा करती थी- दुनिया को काम प्यारा है, चाम नहीं।
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