30 जुलाई हमारे लिए खास दिन था। उस दिन हमने सहकारिता परिशिष्ट प्रकाशित करने का प्लान किया था। बिहार में सहकारिता आंदोलन और सहकारिता को समझने का समग्र प्रयास। लेकिन सब धरा का धरा रह गया। पर्याप्त पठनीय सामग्री और भरोसेमंद सूचना के अभाव में वीरेंद्र यादव न्यूज का सहकारिता परिशिष्ट प्रकाशित करने की योजना को स्थगित कर दिया है। इस पर फिर कभी विस्तृत काम करने का प्रयास करेंगे।
पिछले 12-15 दिनों से सहकारिता परिशिष्ट को लेकर काम कर रहे थे। सामग्री जुटा रहे थे और लोगों से बातचीत कर रहे थे। इसके लिए हम विधानसभा पुस्तकालय भी गये। लेकिन संतोषप्रद जानकारी कहीं नहीं मिली। विधानसभा पुस्तकालय में भी सहकारिता पर कोई पुस्तक नहीं है। सहकारिता का पूरा आंदोलन तपेश्वर सिंह, राजो सिंह और मथुरा प्रसाद सिंह पर आकर थम जा रहा था। वर्तमान में सुनील सिंह, विजय सिंह, विनय शाही और रमेश चंद्र चौबे पर आकर बात समाप्त हो जा रही थी। लेकिन पठनीय सामग्री के रूप में कुछ भी हाथ नहीं लग रहा था। इस दौरान एक बात समझ में आयी कि सहकारिता पर काम करने का बड़ा स्कोप है। सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार से सहकारिता अछूता नहीं है। इसके बावजूद कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सहकारिता गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। पैक्स, व्यापार मंडल और जिला केंद्रीय सहकारी बैंक कृषि और कृषि आधारित कारोबार पर असर डाल रहे हैं। धान और गेहूं की खरीद में पैक्स का दखल बढ़ा है। फल और सब्जियों की खरीद के लिए सहकारी समितियां है। मछली और गन्ने के धंधे में भी सहकारी समितियां सक्रिय हैं। बिहार में कम्फेड और सुधा की व्यापारिक सफलता सहकारी सरोकार की सफलता है।
बिहार में बिहार स्टेट कोऑपरेटिव बैंक की स्थापना 1914 में हुई थी। मतलब 110 साल पहले। अंग्रेजी राज में ही सहकारिता के माध्यम से लोगों के जीवन-स्तर सुधारने की कोशिश शुरू हो गयी थी। यह सिलसिला निरंतर जारी रहा। समय के साथ इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप भी बढ़ा और फिर राजनीति का केंद्र भी बन गया। जनप्रतिनिधियों की प्रत्यक्ष भागीदारी ने इसका लोकतंत्रीकरण भी किया। अब सभी सहकारी संस्थाओं के लिए चुनाव होता है। इनका चुनाव कराने के लिए अलग प्राधिकार है।
सहकारिता आंदोलन, सहकारिता का बाजार और सहकारिता के सरोकार के क्षेत्र में कार्य करने की व्यापक संभावना है। इससे जुड़ी व्यापक सामग्री एकत्र करने के बावजूद हमने सहकारिता परिशिष्ट प्रकाशित करने का प्लान स्थगित कर दिया है। इससे सहकारिता आंदोलन पर विशेषांक प्रकाशित करने का सपना दरक गया, इस दिशा में बढ़ रहा कदम ठहर गया। इस विफलता का जिम्मेवार हम ही हैं। हम 12-15 दिनों में एक बड़ा विषय पर परिशिष्ट प्लान कर लिये थे, जबकि इसके लिए सतत और कई महीनों तक काम करने की जरूरत थी। खैर, इस प्लानिंग का एक लाभ हुआ कि सहकारिता, सहकारी संस्थाएं और सहकारी बाजार को करीब से समझने का मौका मिला। इस क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों से मिलने और उन्हें जानने का अवसर मिला। फिलहाल सहकारिता आंदोलन पर काम करने का सपना दरक जरूर गया है, लेकिन टूटा नहीं है।