भारतीय राजनीति में कांशीराम, कर्पूरी ठाकुर और करुणानिधि जैसे नेता वोट की ताकत से ही पैदा हुए थे। वोट का यह अधिकार हर भारतीय नागरिक को भारतीय संविधान देता है। 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधान सभाओं के लिए एक साथ मतदान होता था। एकाध राज्य को छोड़ दें तो केंद्र और सभी राज्यों में कांग्रेस की ही सरकार बनती थी। 1967 में पहली बार कई राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकार बनीं, लेकिन वे लंबे तक नहीं चल सकीं। इस कारण अनेक राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा। लेकिन 1967 में गैरकांग्रेसी सरकारों में गैरसवर्ण व्यक्तियों को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला और गैरसवर्णों को बड़ी संख्या में सत्ता में हिस्सेदारी मिली। इससे सत्ता का चरित्र बदलने लगा। सत्ता में सवर्णों का दखल थमने लगा। इसके साथ ही कांग्रेस ने भी गैरसवर्णों को सत्ता में व्यापक हिस्सेदारी देने की शुरुआत की। भोला पासवान शास्त्री, दारोगा प्रसाद राय, अब्दुल गफूर कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री थे। इसी दौर में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव अलग-अलग होने लगे। बिहार में 1967 के बाद 1969 और 1972 में विधान सभा चुनाव कराए गये। हर चुनाव में सामान्य सीटों पर सवर्णों की जगह गैरसवर्णों की संख्या में बढ़ती गयी।
उत्तर भारत में डॉ राममनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन के कारण गैरसवर्णों जातियों का आधिपत्य बढ़ता जा रहा था। इन जातियों से बड़ी संख्या में नेता भी निकल रहे थे। कर्पूरी ठाकुर, रामसुंदर दास, कांशीराम वोट की ताकत की उपज थे। 1990 के बाद मंडल आंदोलन ने भारतीय राजनीति के पेट का चरित्र बदल दिया। सभी पार्टियों ने सवर्णों के बजाये गैरसवर्ण जाति के नेताओं को आगे बढ़ाने की परिपार्टी शुरू की। कांग्रेस ने सीताराम केसरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो भाजपा ने बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व सौंपा। बाद के दिनों में भाजपा ने कल्याण सिंह, बाबूलाल गौड़, शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती जैसे नेताओं को प्रदेशों की कमान सौंपी। वजह यह थी कि इन नेताओं का जातीय आधार था और वोट की बड़ी ताकत इनके पास थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी खुद को ओबीसी बताकर वोट मांगा था।
इन जातियों के ताकतवर होने की वजह थी वोट का अधिकार। वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग पार्टी और नेता को वोट डाल रहे थे। लोकसभा में एक पार्टी को तो विधानसभा में दूसरी पार्टी को वोट डाल रहे थे। इनके पास वोट की बहुलता थी। पांच साल में पांच बार अलग-अलग चुनाव के लिए वोट देने का मौका मिल रहा था। इससे वोटर राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक हो रहे थे और ताकतवर भी।
वन नेशन वन इलेक्शन इसी जागरूकता पर ब्रेक लगाने की साजिश है। वोट की ताकत से गैरसवर्ण जातियों के नेताओं की एक बड़ी फौज खड़ी हो गयी। इससे भयाक्रांत भाजपा का सवर्ण नेतृत्व ने साजिश के तहत वोट का अधिकार कम करने या छीनने की साजिश के तहत नया फार्मूला लाया है। यह फार्मूला आम आदमी का अधिकार को कम और लोकतंत्र को संकुचित करेगा। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गैरसवर्णों को भुगतना पड़ेगा।