आप भागते हुए किसी कार्यक्रम में पहुंचते हों और पहुंचते ही कार्यक्रम का पटापेक्ष हो जाए तो निराशा स्वाभाविक है। हमारे ऊपर निराशा का भाव चढ़ता, इससे पहले लालूजी पत्रकारों के सवाल का जबाव देने के लिए थोड़ी देर मंच पर रुके। सवाल ब्राह्मण-राजपूत और नीतीश से मुलाकात पर ठहर गये। इसके बाद वे मंच से नीचे आकर सभागार होते हुए बाहर किताब उत्सव यानी पुस्तक विक्रय केंद्र पहुंचे। थोड़ी देर ठहरने के बाद वे प्रस्थान कर गये।
हमारे पास न लोकार्पित पुस्तक की कॉपी थी और न भाषणों का जखीरा। हम भी किताब उत्सव के मैदान में कूद पड़े। हमारी नजर गोबरगणेश नामक पुस्तक पर पड़ी। गोबर से हमारा रिश्ता बचपन का रहा है। हर आयोजन में कलश में गोबर थोप कर गणेश बताने की परंपरा भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है। गोबरगणेश के साथ एक फोटो भी उतारी। हम शिवानंद तिवारी की पुस्तक तलाश रहे थे। किताब खोजते हुए काउंटर पर पहुंचा। वहां थोक में किताब रखी हुई थी। काफी लोग खरीद भी रहे थे। हमने कीमत पूछा तो कांउटर वाले ने बताया- ढाई सौ रुपये। हम घर से तीन सौ रुपये लेकर चले थे। 195 का तेल भरवाया था और 105 रुपये धोकरी में शेष था। किताब उलट-पुलट कर देखा और किताब वहीं धर कर आगे बढ़ गये।
हॉल के बाहर शिवानंद जी खड़े लोगों से बातचीत कर रहे थे। हम भी मजमा में शामिल हो गये। इस दौरान एक साथी ने पूछा कि पुस्तक में सिर्फ संसद है या सड़क की कहानियां भी हैं? पूछने वाले का मकसद किताब की विषय वस्तु जानना रहा होगा। पुस्तक लोकार्पण समारोह में शामिल होकर भी पुस्तक की विषय-वस्तु, वक्ताओं के संबोधन और भीड़ का आनंद से वंचित होना सालता रहेगा। लेकिन कार्यक्रम में शामिल होकर मजमा का हिस्सा बने रहने का सुख का भी अपना आनंद है।