बिहार की राजनीति जाति के आसपास घुमती है। वृत्त की परिधि चाहे जिस रंग, रूप या सरोकार का हो, केंद में जाति ही रहती है। हाल ही राज्य सरकार ने जाति आधारित गणना करवाया था। दरअसल यह जाति गणना थी और इसमें ‘आधारित’ शब्द जबरिया चेप दिया गया है। सरकार ने बड़े धूमधाम से जाति गणना का जश्न मनाया। सचिवालय में प्रेस कॉंफ्रेंस से लेकर विधान सभा की कार्यवाही में जमकर जाति गणना का जयकार हुआ। इसी आधार पर सरकार ने आरक्षण का दायरा 60 फीसदी से बढ़ाकर 75 कर दिया। यही एक काम हुआ, जो जाति गणना के फलितार्थ के रूप में सामने आया। शेष जाति गणना के आंकड़े झूठ के दस्तावेज ही लगते हैं। क्योंकि किसी भी आंकड़े का जिलावार प्रकाशन नहीं किया गया है। फिर जो आंकड़े एकत्रित किये गये हैं, उनका कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं लिये गये थे। हर जिले की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बनावट अलग-अलग है। इसलिए इसकी रिपोर्ट भी अलग-अलग जारी की जानी चाहिए थी। लेकिन सरकार की मंशा सिर्फ माथे की संख्या गिनना था, माथे की बनावट से कोई वास्ता नहीं था।
जाति गणना की रिपोर्ट के अनुसार, यादवों की संख्या सबसे अधिक है 14.26 प्रतिशत। सरकार के इस आंकड़े से सवर्णों को कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि इससे गैरयादव पिछड़े ज्यादा परेशान थे। धारणा तो यह भी गढ़ी गयी कि यादव जाति पिछड़ों और अतिपिछड़ों को लेकर ज्यादा आक्रामक और अमानवीय हो गयी है। इस धारणा को सवर्णों ने गढ़ा और फिर इसको आगे बढ़वाने में ओबीसी जातियों का इस्तेमाल किया गया। सवर्णों द्वारा गढ़ी गयी इस अवधारणा को सबसे अधिक मजबूत ओबीसी जातियों में आयी महत्वाकांक्षाओं ने किया। महत्वाकांक्षा ने जातीय संख्या को यादव फोबिया में बदल दिया।
यादवों के खिलाफ जो अवधारणा गढ़ी गयी, वह संदर्भ में हटकर है। दरअसल यादवों में आयी राजनीतिक उभार और सत्ता की चेतना ने ओबीसी की बड़ी आबादी को प्रेरित किया। वर्षों तक सवर्णों की सत्ता और सामाजिक आधिपत्य में रहने वाली ओबीसी जातियों के अंदर सवर्णों की सत्ता को चुनौती देने का साहस नहीं था। वे सवर्णों के सामाजिक प्रभुत्व को सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे। सवर्णों के सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के खिलाफ अकेले यादव जाति मजबूती से लड़ रही थी। उनकी लड़ाई से उत्साहित होकर कोईरी और कुर्मी जाति के लोग भी आगे आने लगे। इसका विस्तार अन्य ओबीसी जातियों में भी होने लगा।
1990 में लालू यादव सत्ता में आते हैं। सत्ता शीर्ष से सवर्णों का आधिपत्य समाप्त होता है। एक यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों में खलबली मच जाती है। उनके सत्ता सरोकार और महत्वाकांक्षाओं को नयी जमीन मिलती है, नयी उम्मीद जगती है। ओबीसी के लोग सवर्णों के साथ अपनी तुलना करने की सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन यादवों के साथ मुकाबला करने का उनका आत्मबल बढ़ा। उन्हें लगा कि यादव का बेटा सीएम बन सकता है, तो हमारा बेटा सीएम क्यों नहीं बन सकता है। इसी दौर में उन जातियों के बीच से नेता भी पैदा होने लगते हैं। ऐसे नेताओं की समाज में स्वीकार्यता भी बढ़ी। यादवों के साथ अन्य ओबीसी जातियों की महत्वाकांक्षाओं का टकराव शुरू हुआ। वे सब यादवों के खिलाफ नहीं थे, बल्कि यादवों के बराबर खड़ा होना चाहते थे।
इन महत्वाकांक्षाओं को इसी वर्ग से आने वाले और तत्कालीन सांसद नीतीश कुमार ने पहचाना। उन्होंने लालू यादव के खिलाफ बगावत की शुरुआत की। नीतीश ने यादवों के खिलाफ अन्य गैरयादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी शुरू की। यादवों का भय दिखाना शुरू किया। उनका यह फार्मूला चल निकला। ओबीसी में यादवों से बराबरी के भाव को नीतीश कुमार ने नफरत में बदल दिया। ओबीसी जातियों में यादवों के खिलाफ नफरत का भाव जितना बड़ा होता गया, नीतीश कुमार का कद उतना ही बढ़ता गया।
इसी भावनात्मक लड़ाई का लाभ सवर्णों ने उठाया। इन जातियों ने यादवों को खलनायक बनाने का अभियान शुरू किया और नीतीश कुमार उनके साथ खड़े रहे। परिणाम यह हुआ कि जब जाति गणना की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई तो सवर्णों से ज्यादा ओबीसी जातियां यादवों के खिलाफ मुखर थीं। राजनीतिक रूप से नीतीश कुमार के कमजोर होने के बाद यादवों के खिलाफ ओबीसी में नफरत का भाव कम हुआ है, लेकिन महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई तेज हो गयी है। यह एक स्वस्थ और आवश्यक लड़ाई है। यह जितना तेज होगी, समाज को उतना ही लाभ होगा। आरक्षण के दायरे के विस्तार के बाद हकमारी का आरोप भी निराधार साबित होगा। ओबीसी जातियों को यादव फोबिया से उबरना चाहिए और महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई सकारात्मक दिशा में ले जाना चाहिए। इससे संपूर्ण बिहार और समस्त समाज को लाभ होगा।
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