जदयू में हुए उठापटक के बाद बिहार सरकार के भविष्य को लेकर भी संशय गहराने लगा है। लेकिन राजनीतिक परिस्थिति ऐसी है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिलहाल सहयोगी बदलने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। राजद के पास भी नीतीश कुमार के साथ बने रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन राजद की त्रासदी यह है कि वह अपने प्रभाव के कारण हुए प्रशासनिक निर्णयों का श्रेय लेने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। पिछले लगभग डेढ़ साल में तीन बड़े निर्णय बिहार में हुए हैं और तीनों का श्रेय राजद को जाता है। लेकिन राजद नेता और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी इन निर्णयों में अपनी निर्णायक भूमिका का दावा करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।
बिहार में जाति आधारित गणना के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तैयार करवाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका तेजस्वी यादव की रही थी। नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनके ही दबाव में कारण सरकार ने जाति आधारित गणना करवाने का निर्णय लेती है। बाद में जब राजद सरकार में शामिल होता है तो इस प्रक्रिया में तेजी आती है। कोर्ट की अड़चनों के बीच जाति आधारित गणना का कार्य संपन्न होता है। विधान सभा में रिपोर्ट प्रस्तुत होती है और उसी रिपोर्ट के आधार पर बिहार में आरक्षण की सीमा 65 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दी जाती है। यह सब राजद के सहयोग और दबाव के कारण संभव हो सका है।
बिहार के युवाओं के हित में बहुत बड़ा काम हुआ कि बीपीएससी के माध्यम से 2 लाख से अधिक शिक्षकों की बहाली स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में हुई। नियोजित शिक्षकों को राज्यकर्मी का दर्जा देने का मार्ग प्रशस्त हुआ। यह सब राजद के सत्ता में होने के कारण ही संभव हुआ। यह तीन काम भाजपा के सत्ता में रहते कभी संभव नहीं था। जब तक नीतीश कुमार भाजपा के साथ सत्ता के साझेदार थे, कभी इन तीन बड़े कामों को प्राथमिकता नहीं दी थी। अब नीतीश कुमार दस लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने की बात भी खुद कर रहे हैं, जबकि यह राजद का एजेंडा था। लेकिन राजद अपनी ही उपलब्धियों को अपने हिस्से में गिनाने को तैयार नहीं है। राजद या तेजस्वी यादव की यह कौन सी मजबूरी है कि अपनी राजनीतिक ताकत को पहचानने के लिए तैयार नहीं हैं। यह बात राजद के सांगठनिक पदाधिकारियों को भी पता नहीं है।
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