जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। अब उनके लिए भरोसे के लायक कोई नहीं है। उन्होंने जिसे भी पार्टी को सिंचने की जिम्मेवारी सौंपी, वही जड़ में मट्ठा डालने लगा। उन्होंने शरद यादव के राष्ट्रीय अध्यक्ष के दौर तक पार्टी को अपने चाबूक से हांकते रहे। उसमें शरद यादव ने कभी कोई रोड़ा नहीं डाला। वजह साफ थी कि उन्हें बिहार की स्थानीय सत्ता में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में जदयू के लिए अपरिहार्य थे। उन्होंने नीतीश कुमार को पहली बार गच्चा 2014 में दिया। 2014 में शरद यादव लोकसभा चुनाव हार गये थे। उन्हें राज्य सभा जाने की जरूरत थी। उस साल राज्य सभा की तीन सीटों पर उपचुनाव होना था। उस उपचुनाव में जदयू ने तीन उम्मीदवार उतारे। उसमें एक शरद यादव भी थे। इसी समय जदयू के कुछ विधायकों ने बगावत कर दी और दो निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रस्तावक बन गये। इन उम्मीदवारों को भाजपा ने भी समर्थन की घोषणा कर दी। शरद यादव के निर्विरोध चुना जाना नीतीश कुमार को खल गया था, हालांकि उस उपचुनाव में तीनों सीटों पर जदयू उम्मीदवारों की जीत हुई थी। उस उपचुनाव में राजद ने जदयू उम्मीदवारों का समर्थन किया था।
इसी उपचुनाव के साथ राजद और जदयू के बीच रिश्तों का नया दौर शुरू हुआ। राजद के समर्थन से ही नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को अपदस्थ कर सत्ता हथिया ली। 2015 के विधान सभा चुनाव में राजद, जदयू और कांग्रेस ने साझा चुनाव लड़ा और बड़ी जीत हासिल की। नये समीकरण में शरद यादव नीतीश कुमार की जरूरत नहीं रह गये थे। इसी कारण 2016 में राज्यसभा चुनाव से पहले शरद यादव से इस्तीफा दिलवाकर नीतीश कुमार ने पार्टी की कमान संभाल ली। उस सयम शरद यादव के राज्यसभा उम्मीदवारी पर भी संकट मंडराने लगा था, लेकिन लालू यादव के दबाव में जदयू ने 2016 में उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया।
इस बीच नीतीश कुमार का मन डोलने लगा था और वे भाजपा के साथ फिर जाना चाहते थे। शरद यादव इसके खिलाफ थे। इसके बावजूद जुलाई, 2017 में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ सरकार बना ली। शरद यादव ने जब नीतीश के फैसले के खिलाफ आवाज उठायी तो उनकी राज्यसभा सदस्यता पर ही धावा बोल दिया और उनकी सदस्यता समाप्त करवा दी गयी, लेकिन कानूनी पेंच ऐसा उलझा कि शरद यादव की सदस्यता समाप्त हो गयी, लेकिन सांसद के रूप उन्हें सुविधाएं मिलती रहीं। इसी कारण इस सीट पर उपचुनाव भी नहीं करवाया जा सका।
2020 के विधान सभा के चुनाव के दौरान नीतीश कुमार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। पार्टी तीसरे स्थान पर चली गयी। पार्टी का सबसे घटिया प्रदर्शन नीतीश कुमार के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते ही हुआ। 2021 में नीतीश कुमार ने अपने विश्वस्त आरसीपी सिंह को पार्टी की कमान सौंपी, लेकिन वे नीतीश के कमांड से बाहर हो गये। नीतीश कुमार की इच्छा के विपरीत आरसीपी सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गये। उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होते उनकी विदाई हो गयी। इसी बीच ललन सिंह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। उनके ही कार्यकाल में राजद और जदयू एक बार फिर साथ आये। नीतीश कुमार ने राजद के सहयोग से दूसरी बार अगस्त, 2022 में सरकार बनायी। इस में ललन सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के बीच मध्यस्थ की भूमिका में वही थे।
अब ललन सिंह की पार्टी अध्यक्ष पद से विदाई हो गयी है। 29 दिसंबर की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में उन्होंने इस्तीफा दिया और उनकी जगह पर नीतीश कुमार राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये हैं। 30 दिसंबर को पटना पहुंचने पर कार्यकर्ताओं ने नीतीश कुमार का स्वागत किया, लेकिन वे सुरक्षाकर्मियों के घेरे से बाहर नहीं निकल पाये। यह भी विडंबना है कि नीतीश कुमार सचिवालय में नौकरशाहों से घिरे रहते हैं और सचिवालय से बाहर सुरक्षाकर्मियों से बंधे रहते हैं। नीतीश कुमार का अब अपने मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क लगभग समाप्त हो गया है। वे अब चुनिंदा नेताओं से मिलते हैं और अपने मनपसंद मंत्रियों को अपने पास फटकने देते हैं। इसके अलावा उनकी दुनिया कुछ विश्वस्त नौकरशाहों और सुरक्षाकर्मियों पर निर्भर हो गयी है।
जनसैलाब के साथ सत्ता की राजनीति शुरू करने वाले नीतीश कुमार अब वीरान हो गये हैं। उनके आसपास कुर्ता-पैजामे वालों के दिन लद गये हैं और सूट-बूट धारी लोग ही उनके जीवनचर्या के हिस्सा बन गये हैं। वैसे दौर में नवनिर्वाचित अध्यक्ष नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा, यह उनके विश्वस्त सहयोगी विजय कुमार चौधरी और बिजेंद्र प्रसाद यादव को भी पता नहीं चलता है। ललन सिंह भी नीतीश का भरोसा खो चुके हैं।
अब नीतीश कुमार के हर कदम को लेकर सहयोगी राजद और विरोधी भाजपा दोनों सचेत और सतर्क हो गये हैं। नीतीश कुमार कब किस करवट बैठेंगे। इसकी चिंता राजद और भाजपा दोनों को रहती है। राजद नेता तेजस्वी यादव को लगता है कि पता नहीं नीतीश कुमार कब भाजपा के साथ चले जाएं और प्रदेश भाजपा को लगता है कि पता नहीं नीतीश कुमार कब पीएम नरेंद्र मोदी से बातकर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने की लड़ाई का हवा निकाल दें। मुख्यमंत्री को राजद अस्वीकार्य (छोड़ना) नहीं करना चाहता है और भाजपा स्वीकार (जोड़ना) नहीं करना चाहती है। लेकिन नीतीश दोनों के लिए कभी भी असहज स्थिति उत्तन्न कर सकते हैं।
बिहार के पूरे राजनीतिक वातावरण में अविश्वास का माहौल है। पार्टियों के सांसद, विधायक से लेकर कार्यकर्ता तक हतप्रभ हैं। गठबंधनों में शामिल दल भी अपने सहयोगियों के लिए भरोसे के लायक नहीं हैं। नीतीश कुमार के एक निर्णय से बिहार का राजनीतिक और जातीय समीकरण का स्वरूप बदल जाएगा। लेकिन यह स्थिति नीतीश कुमार के लिए भी बहुत सुविधाजनक नहीं हैं। राजद का डर उन्हें भर नींद सोने नहीं देगा और भाजपा से साझेदारी की आस चैन से बैठने नहीं देगी। बिहार का राजनीतिक यथार्थ यह है कि राजद और भाजपा दोनों जदयू का अवसान चाहते हैं, उसको समाप्त कर देना चाहते हैं, लेकिन 8-10 फीसदी वोटों की ठेकेदारी की राजनीति की ताकत ही दोनों को नीतीश कुमार के सामने घुटने टेकने को बाध्य कर देती है। यह बाध्यता अभी बिहार की राजनीति की मजबूरी है और मजबूती भी। इस विवशता से फिलहाल बिहार को मुक्ति मिलने वाली नहीं है।
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