मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जदयू सरकार 12 फरवरी को विधान सभा में बहुमत साबित करने में सफल हो रही, लेकिन भाजपा और जदयू अपने विधायकों की बगावत को रोक नहीं सके। यह असंतोष तथा बगावत और भयावह हो सकता था, यदि मंत्रिमंडल का विस्तार कर दिया गया होता। विधायकों में असंतोष के डर से ही नीतीश कुमार ने छोटा मंत्रिमंडल बनाया था और फिर इसके विस्तार को लटका दिया। एक साथ ही 29-30 मंत्रियों को शपथ दिलायी गयी होती तो सत्तारूढ़ दल में और भयावह विद्रोह की नौबत आ गयी होती। लेकिन नीतीश कुमार ने 2014 में राज्य सभा उपचुनाव के दौरान बगावत से सीख लेकर ही मंत्रिमंडल का आकार छोटा बनाये रखा, ताकि मंत्री पद का सिकहर टूटने के इंतजार में विधायक बैठे रहें।
2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी दो सीटों पर सीमट गयी थी। इसके बाद नीतीश कुमार ने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। उस चुनाव में राज्यसभा के तीन सदस्य राजीव प्रताप रुढ़ी, रामविलास पासवान और रामकृपाल यादव लोकसभा के लिए चुन लिए गये थे। इस कारण राज्यसभा की तीन सीटों पर उपचुनाव होना था। उसी दौरान नीतीश कुमार ने राजद के चार और भाजपा के दो विधायकों को विधान सभा से इस्तीफा दिलवा कर एमएलसी बनवा दिया था। उस समय सम्राट चौधरी राजद के विधायक थे। वे भी जदयू एमएलसी बन गये थे। जुलाई महीने में मांझी मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया। उस विस्तार में राजद से आये तीनों लोगों को मंत्री बना दिया गया। इससे जदयू विधायकों में भारी असंतोष छा गया। जब मांझी सरकार चल रही थी तब जदयू निर्दलीय विधायकों से समर्थन से बहुमत में था।
लेकिन 2014 में लोकसभा के बाद राज्यसभा की 3 सीटों के लिए हुआ उपचुनाव नीतीश कुमार के लिए गले की हड्डी बन गयी। तीन सीटों में से एक सीट पर पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव स्वयं उम्मीदवार थे। बाकी अन्य दो सीटों पर शाबीर अली और धीरेंद्र वर्मा जदयू के उम्मीदवार थे। इन दो उम्मीदवारों के खिलाफ मंत्रिमंडल में जगह नहीं पाने से नाराज जदयू विधायकों ने दो निर्दलीय उम्मीदवारों को उतार दिया, जिसे भाजपा ने समर्थन की घोषणा कर दी। इस उपचुनाव में जदयू के लगभग 20 विधायकों ने क्रास वोटिंग की। उस चुनाव में शरद यादव निर्विरोध चुन लिये गये थे, जबकि दो अन्य उम्मीदवारों को राजद के समर्थन से जीत हासिल हुई थी।
2014 में नीतीश कुमार के लिए राज्य सभा उपचुनाव से पहले मंत्रिमंडल का विस्तार भारी पड़ गया था। विधायकों का विरोध नीतीश को इतना नागवार गुजरा था कि उन्होंने 8 विधायकों की सदस्यता समाप्त करवा दी थी। बाकी बागियों को अगले चुनाव में बेटिकट कर दिया था। 10 साल बाद नीतीश कुमार को उसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। मंत्रिमंडल का विस्तार और विधान सभा में बहुमत साबित करना दोनों चुनौती पूर्ण था। इसलिए विधायकों में असंतोष को दबाए रखने के लिए मुख्यमंत्री ने कैबिनेट विस्तार टाल दिया। इसके बावजूद पांच विधायक बागी हो गये तो यह भी नीतीश कुमार के लिए कम चुनौती नहीं है। इससे बडी चुनौती भाजपा के लिए है कि संगठन और नेतृत्व का दावा करने वाली भाजपा तीन विधायकों को सहेज कर नहीं रख सकी। यदि मंत्रिमंडल का विस्तार कर दिया जाता तो सरकार के लिए महंगा पड़ सकता था।