बिहार के स्कूली पाठ्यक्रमों में एक कहानी होती थी पंच परमेश्वर। शीर्षक ही पूरी कहानी बता देती थी। पंच की अवधारणा जब विधान सभा या लोकसभा में पहुंचती है तो वह शब्द बन जाता है स्पीकर यानी अध्यक्ष। लेकिन पंच के स्पीकर तक की यात्रा पूरी करते-करते उसकी अंतरात्मा बदल जाती है। स्कूली पाठ्यक्रम का पंच परमेश्वर होता है और विधान सभा अध्यक्ष बनते ही वह पार्टी का हितसाधक बन जाता है। अध्यक्ष आसन पर बैठता है और पार्टी स्पीकर के माथे पर सवार रहती है। स्पीकर की हर व्यवस्था पार्टी के हित से जुड़ी होती है।
बिहार विधान सभा की बात करते हैं, सत्रहवीं विधान सभा की। 2020 में जब तीसरे नंबर की पार्टी जदयू के नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनते हैं तो दूसरे नंबर की सत्ता में साझेदार पार्टी भाजपा सबसे पहले स्पीकर का पद जदयू से छीनती है। क्योंकि मुख्यमंत्री भाजपा की अनुकंपा पर पदधारक बन रहे थे, इसलिए स्पीकर की कुर्सी हाथ से निकल जाने का मलाल भी नहीं था। अगस्त, 2022 में जब नीतीश कुमार राजद के साथ सरकार बनाते हैं तो राजद अध्यक्ष पद पर अपना सदस्य बनाता है। जनवरी, 2024 में नीतीश कुमार भाजपा के साथ जाते हैं तो अध्यक्ष पद फिर भाजपा अपने कब्जे में रखती है। इतना महत्वपूर्ण है अध्यक्ष की दलीय प्रतिबद्धता। संविधान की आड़ में संविधान की धज्जियां उड़ाने का अधिकार अध्यक्ष के पास है और उस पर आमतौर पर कोर्ट भी ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करता है।
सत्रहवीं विधान सभा से पहले हम 15वीं विधान सभा की बात करते हैं। कार्यकाल था 2010-15 और अध्यक्ष थे उदय नारायण चौधरी। सरकार के पास प्रचंड बहुतमत था। इतना प्रचंड बहुमत था कि जून, 2013 में नीतीश कुमार ने भाजपा को धकिया कर विपक्ष में धकेल दिया था। उस विधान सभा में अध्यक्ष ने कुछ विधायकों के फर्जी हस्ताक्षर के आधार पर राजद के एक गुट को अलग मान्यता दे दी थी। हालांकि विवाद बढ़ने के बाद मान्यता रद भी हो गयी थी। 2014 में राज्यसभा उपचुनाव में क्रास वोटिंग जदयू के लगभग 20 विधायकों ने की थी, लेकिन सदस्यता मात्र 8 लोगों की खायी गयी थी। उसके आधार अलग बना दिये गये थे, क्योंकि मुख्यमंत्री ऐसा ही चाहते थे। इन आठ विधायकों को उस कार्यकाल में मिलने वाली सुविधाओं से वंचित कर दिया गया था। मतलब यह टर्म का पेंशन भी नहीं मिलता था। हालांकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी बर्खास्त सदस्यों को उस टर्म में मिलने वाली सुविधाएं बहाल कर दी थी। बाद में उदय नारायण चौधरी से एक बार हमने इसी मुद्दे पर बातचीत की थी। उन्होंने कहा कि अध्यक्ष को निर्णय लेने में पार्टी हित का भी ख्याल रखना पड़ता है।
हर अध्यक्ष को अपनी पार्टी लाइन का ख्याल रखना पड़ता है। इसलिए 2020 से बजट सत्र 2022 तक कई बार स्पीकर और मुख्यमंत्री के बीच सदन में गरमाहट की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। 2022 के बजट सत्र में एक दिन तो जदयू ने ही स्पीकर विजय कुमार सिन्हा का बायकाट कर दिया था। मजबूरन उन्हें हाउस स्थगित करनी पड़ी थी। विजय कुमार सिन्हा ने वीआइपी के तीन विधायकों को भाजपा में शामिल होना था तो कुछ मिनटों में फैसला सुना दिया और जब एआइएमआइएम के चार विधायकों को राजद में शामिल होना था तो तीन दिनों तक खींचते रहे थे।
फिलहाल विधान सभा अध्यक्ष नंदकिशोर यादव भाजपा के सदस्य हैं। अलग-अलग दिनों में राजद के चार और कांग्रेस के दो विधायक विपक्ष के बजाय सत्ता पक्ष में आकर बैठ गये। अध्यक्ष के आसन पर होने के दौरान भी ये विपक्ष दलों के 6 सदस्य सत्ता पक्ष में बैठते हैं। सदन में हर सदस्य की दलीय स्थिति के अनुसार बैठने की व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था खुद अध्यक्षीय कार्यालय करता है। तब सवाल उठता है कि क्या अध्यक्ष अपनी जगह बदलकर बैठने वाले सदस्यों के खिलाफ कोई कार्रवाई करेंगे। यह तो सीधे अध्यक्ष यानी आसन की अवमानना है। लेकिन अध्यक्ष कोई कार्रवाई नहीं करेंगे, क्योंकि आसन की यह अवमानना स्पीकर की पार्टी यानी भाजपा के फेवर में है।
एक व्यवस्था है दल-बदल कानून। कोई व्यक्ति अपने दल को छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में चला जाता है तो दल-बदल कानून के तहत उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है। इसी विधान सभा में 8 सदस्यों की सदस्यता इसी कानून तक तहत उदय नारायण चौधरी ने समाप्त की थी। फिलहाल राजद ने अपने 4 और कांग्रेस ने अपने दो सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए उनकी सदस्यता समाप्त करने का आग्रह अध्यक्ष से किया है और इस संबंध में पत्र भी दिया है।
हम यह बताना चाह रहे हैं कि आसन पर बैठने वाले व्यक्ति उदय नारायण चौधरी हों, विजय कुमार सिन्हा हों या नंदकिशोर यादव हों, ये सभी पार्टी के हित साधक हैं। विधान सभा के आसन पर बैठा व्यक्ति पंच नहीं है, इसलिए परमेश्वर भी नहीं हो सकता है। उनका कोई भी निर्णय पार्टी या मुख्यमंत्री के दिशा-निर्देश के अनुसार ही होगा।