स्टोरी से पहले खोरनी और लुकवारी को समझना जरूरी है। गांव-घर में गोइठा के चूल्हे में आग को उकसाने लिए लकड़ी का एक टुकड़े का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे खोरनी कहते हैं। होलिका दहन की रात में लोग रेड़ की डंढल में पुआल बांधकर होलिका में डालते हैं। इसे लुकवारी कहते हैं। कई बार यह लुकवारी होलिका के आसपास के खेतों में खड़ी फसल को जला भी डालती है। कोई व्यक्ति उस लुकवारी को खड़ी फसल में फेंक दिया तो फसल में आग भी लग जाती है और भारी नुकसान भी उठाना पड़ता है।
बिहार आज इसी खोरनी और लुकवारी का दंश झेल रहा है। शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव हैं केके पाठक। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तत्कालीन शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर पर अंकुश लगाने के लिए केके पाठक को शिक्षा विभाग में लाये थे। उन्होंने यह काम बखूबी किया। शिक्षा मंत्री को उन्होंने अप्रासंगिक बना दिया। यहां तक वह खोरनी की भूमिका में थे। लेकिन खोरनी कब लुकवारी में तब्दील हो गयी, सरकार को समझ में ही नहीं आया। जब केके पाठक विधान सभा और विधान परिषद की गरिमा की ही धज्जियां उड़ाने लगे तो चारों तरह हाहाकार मच गया। सत्ता और विपक्ष में बैठे विधायक और विधान पार्षद सदन में मिमियां रहे हैं और आसन शांत रहने का फरमान जारी कर रहा है। पाठक ने सिर्फ सदन ही नहीं, बल्कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री को भी औकात बता दी है। शिक्षा मंत्री को पाठक के हर निर्णय के बचाव में खड़ा होना पड़ रहा है और उनके ही पक्ष के लोग पाठक के खिलाफ आग ऊगल रहे हैं। मुख्यमंत्री द्वारा सदन में दिया गया आश्वासन भी पाठक के लिए बेमतलब हो गया है।
दरअसल बिहार की जो प्रशासनिक कार्यशैली है, उसमें केके पाठक एक नाम भर के हैं। पूरा प्रशासनिक तंत्र यही है। चूंकि पाठक के निर्णय का प्रभाव गांव-गांव और घर-घर तक पड़ता है, इसलिए वह ज्यादा दिख रहा है। कोई भी अधिकारी किसी मंत्री की नहीं सुनता है। पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सदन में खुलेआम एस सिद्धार्थ और प्रत्यय अमृत पर काम में अड़ंगा डालने का आरोप लगाया था। बिहार की जो मनबढ़ु नौकरशाही है, केके पाठक उसके चेहरा भर हैं। हर नौकरशाह की आत्मा में केके पाठक बैठा हुआ है। नौकरशाही का यह दु:साहस राजनीतिक तंत्र के अपाहिज होने का परिणाम है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पूरे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र का संचालन नौकरशाह करते हैं, कोई राजनेता नहीं। मुख्यमंत्री के पीछे-पीछे फेरी लगाने वाले उपमुख्यमंत्री या मंत्री की औकात सिर्फ फेरी लगाने भर की है, मुख्यमंत्री के यशोगान भर की है। उपमुख्यमंत्री या मंत्री का ‘वफादारी सर्टिफिकेट’ कोई नौकरशाह ही लिखता है। इसलिए बिहार में कई मंत्रियों की बलि उनके सचिव के कारण चढ़ गयी है।
अब नौकरशाही मुख्यमंत्री और राज्यपाल के गिरेबान में हाथ डालने का साहस कर रही है, उनके निर्देशों की धज्जियां उड़ा रही है तो विधायिका को भी विलाप नहीं करना चाहिए। विधान मंडल के बजट सत्र की हर बैठक में किसी-न-किसी बहाने केके पाठक जरूर चर्चा में रहे हैं। यह किसी सरकार के लिए गर्व का विषय नहीं है। एक और कहावत है न- रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।