हमने यह मान लिया था कि सत्ता की राह की शुरुआत जाति के मुहाने से होती है। इसलिए हमने अपनी हर गतिविधि का केंद्र जाति को बनाया। भोपाल में थे तब भी, पटना आये तब भी। भोपाल की तुलना में पटना में जातीय गिरोहबंदी ज्यादा सहज थी। लेकिन पटना में कामकाज की तलाश मुश्किल थी। भोपाल एवं पटना के बीच 2 माह हमने आगरा के अमर उजाला में भी गुजारे था, लेकिन जड़ जमाने में विफल रहे थे। भोपाल छोड़ने से पहले ही हमने जातीय पहचान को पुख्ता कर लिया था। भोपाल में पहला बैंक एकाउंट हमने पंजाब नेशनल बैंक में खुलवाया था। उसमें नाम में पहली बार यादव जोड़ा था। मतलब वीरेंद्र कुमार यादव।
इसमें दो छोटी घटनाओं का बड़ा महत्व था। भोपाल के शुरुआती दिनों में हम नाम के साथ यादव जोड़ने से परहेज करते थे। लगता था कि कागजी नाम में यादव नहीं है तो लिखने की क्या जरूरत है। पता सबको है। माखनलाल में हमारे सीनियर रहे पुरुषोत्तम देशबंधु के संपादकीय में थे। उन्होंने हमारा एक आलेख उस अखबार में प्रकाशित किया था। उसमें लेख के साथ नाम लिखा – वीरेंद्र यादव। इस नाम से हमारा पहला आलेख था। इसके पहले हम वीरेंद्र कुमार के नाम से ही लिखते रहे थे। पुरुषोत्तम बिहार के ही नवादा के भूमिहार थे।
एक दूसरी घटना की इस दिशा में बड़ी भूमिका रही। हम लोग प्रैक्टिल में हाथ से लिखकर अखबार निकालते थे। हर दिन संपादक बदल जाते थे। एक दिन का संपादक हम भी बने थे। संपादक के नाम की जगह पर हमने लिखा वीरेंद्र कुमार। यह देखकर हमारा रुममेट सौरभ तिवारी भड़क गया। उसके कहा कि नाम के साथ यादव लिखो। इसके बाद संपादक का नाम हो गया- वीरेंद्र कुमार यादव। इसके बाद यही नाम चल पड़ा। नाम लिखना हो या बताना हो, हर जगह।
मीडिया में यादव का होना भी एक सकारात्मक पक्ष था। उस समय भोपाल में मीडिया में हमारे अलावा शायद ही कोई यादव था। इस कारण जातीय मंचों पर हमारी सहज स्वीकार्यता थी। मीडिया के बाजार में कदम रखने के समय से ही पत्रकारिता के साथ राजनीति में जमीन तलाशने की कोशिश करते रहे थे। इस कारण राजनीतिक घटनाक्रमों एवं राजनीतिक खबरों में हमारी विशेष रुचि रहती थी। भोपाल में हमारे लिए राजनीति में ज्यादा संभावना नहीं थी, इसलिए पत्रकारिता पर ज्यादा फोकस रहता था। फ्रीलांसर के रूप में लिखने का काफी स्कोप था, लेकिन अखबार से जुड़ते ही यह संभावना समाप्त हो जाती थी। भोपाल में रहते हुए हमने दोनों स्थितियों का सामना किया। भोपाल में रहते हुए हम फीचर अच्छा लिख लेते थे, लेकिन न्यूज पर पकड़ नहीं थी। इसका खामियाजा भी हमें भुगतना पड़ा था। उस समय दैनिक नई दुनिया, नवभारत और दैनिक भास्कर फीचर के लिए भुगतान करते थे।
भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय आरएसएस का वैचारिक केंद्र था। हमारे बैच में अधिकतर छात्र आरएसएस और विद्यार्थी परिषद से जुड़े हुए थे। बिहार से तीन छात्र थे। हमारे अलावा अरुण कुमार भगत और अरुणेश झा। अरुण बनिया जाति से थे। लखनऊ से पवन त्रिपाठी और गोरखपुर से विनय सिंह। दोनों घोर संघी। पवन के साथ हमारा संघ से जुड़े कार्यालयों में आना-जाना बढ़ा। विनय सिंह सहयोगी स्वभाव के थे।
माखनलाल में पढ़ाई के दौरान की ही घटना है। टूर का प्रोग्राम बन रहा था। खर्चा आ रहा था प्रति छात्र 600 रुपये। पहले कहा गया कि टूर प्रोग्राम का संबंध एक्जाम के नंबर से जुड़ा हुआ है। वैसी स्थिति में टूर मजबूरी को गयी थी। हमने जाने की सहमति दे दी। पैसे का संकट का सामने था ही। लेकिन बाद में बताया गया कि टूर प्रोग्राम का एक्जाम के नंबर से कोई वास्ता नहीं है। इस सूचना के बाद हमने टूर में जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया। थोड़ी राहत की सांस ली। लेकिन हमारे नहीं जाने की सूचना फैलने के बाद नया बखेड़ा खड़ा हो गया, जो मेरे लिए बड़ा असहज हो गया। कई दोस्त यह जानने के लिए हमारे कमरे में आ गये कि आखिर क्यों नहीं जा रहे हो। हमने कहा कि नंबर से टूर का संबंध नहीं है, इसलिए जाने का कार्यक्रम कैंसिल कर दिया। हमारी घरेलू आर्थिक स्थिति से सभी साथी परिचित थे। कई साथियों ने यह प्रस्ताव दिया कि तुम पैसा मत दो, लेकिन साथ में चलो। हमने सभी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। यह प्रस्ताव हमें असहज और अपच लग रहा था। बाद में यही प्रस्ताव लेकर विनय सिंह भी आये। विनय सिंह के प्रस्ताव को हम अस्वीकार नहीं कर पाये। टूर प्रोग्राम राजस्थान के मांउट आबू जाने का था। (जारी)