फायदे और नुकसान देख कर राजनीति करने वालों की एक लम्बी शृंखला है। राजनीतिक जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब कोई भी विचलित हो सकता है। मगर सुशील मोदी एक अलग मिट्टी के बने हुए थे। 2015 में पटना के रवीन्द्र भवन में उनके संसदीय जीवन के 25 वर्ष पूरे होने पर एक समारोह का आयोजन किया गया था। उसमें सुशील मोदी ने भावुक होते हुए अपने संबोधन के दौरान कहा था कि ‘मैं जिस विचारधारा के साथ जुड़ कर राजनीति में आया था, अपनी आखिरी सांस तक वहीं रहूंगा।
2020 के 15 नवम्बर का दिन सुशील मोदी के लिए काफी कठिन था। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दबाव में उन्हें विधानमंडल दल के नेता और उपमुख्यमंत्री के पद को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। शाम के करीब 4.30 बजे सुशील जी 5, देशरत्न मार्ग स्थित अपने कार्यालय में आए। चेहरे पर थकावट और निराशा साफ झलक रही थी। बाहर वेटिंग रूम में कई विधायक और भाजपा के नेता उनसे मिलने का इंतजार कर रहे थे, मगर उन्होंने कुछ देर बाद आने के लिए कह कर उस समय मिलने से इनकार कर दिया। कुछ देर बाद मैं उनके कक्ष में गया, वे अकेले बैठे आई पैड पर कुछ देख रहे थे। मेरी तरफ सिर उठा कर देखा और कहा-‘ राकेश जी, दो पंक्ति का एक ट्वीट लिख दीजिए।’ मैं कुछ देर उनके सामने खड़ा रहा। उन्होंने मद्धिम आवाज में कहा, ‘लिख दीजिए-कोई पद मिले या न मिले, मैं पार्टी का एक समर्पित कार्यकर्ता हूँ और यह अधिकार मुझ से कोई नहीं छीन सकता है।’…कुछ देर बाद कमोबेश यही वाक्यांश उनके ट्वीटर हैंडल से पोस्ट हुआ। उसी समय बातचीत के दौरान उन्होंने पूरी दृढ़ता से कहा, ‘ मैं जीवन के आखिरी क्षण तक पार्टी के प्रति समर्पित रहूंगा।’ वाकई सुशील मोदी अपने प्रण पर अपने जीवन के आखिरी क्षण तक अडिग रहे। परिस्थितियां जैसी भी रही, सुशील मोदी कभी विचलित नहीं हुए। विगत चार दशकों से ज्यादा से मेरा सुशील मोदी जी के साथ संपर्क-साथ रहा। एक दशक तक उनके साथ काम करने का मौका मिला। एक बार गहन हताशा के क्षण में सुशील मोदी ने कहा था-‘मैं संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से संस्कारित हूं, जीवन के अंतिम सांस तक जहां हूं, वहीं रहूंगा।’ तमाम राजनीतिक झंझावातों के बीच उन्होंने अपने इस प्रण को निबाहा।
सत्ता परिवर्तन के ‘वन मैन आर्मी
कोई एक व्यक्ति अपने जुझारूपन और संकल्प शक्ति से कितना कुछ कर सकता है, इसकी अनेक प्रेरक कहानियां पढ़ी है। मगर ‘वन मैन आर्मी’ की ताकत का पहला प्रत्यक्ष अहसास सुशील मोदी के साथ काम करने के दौरान हुआ। 04 अप्रैल, 2017 को उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके लालू यादव पर पटना जू को 90 लाख की मिट्टी बेचने के आरोप लगा कर सियासी भूचाल खड़ा किया। यह मिट्टी लालू यादव के दोनों बेटों तेज प्रताप यादव और तेजस्वी प्रसाद यादव के पटना के ही रूपसपुर में बन रहे ‘द बिगेस्ट मॉल ऑफ बिहार’ से खोदी गई थी। उसके बाद उन्होंने लगातार 44 प्रेस कांफ्रेंस कर लालू यादव व उनके परिजनों की बेनामी सम्पत्तियों, खोखा कम्पनियों, दान, वसीयत, पावर ऑफ अटॉर्नी तथा रेलवे में नौकरियों के बदले जमीन हथियाने आदि का सिलसिलेवार खुलासा कर लालू परिवार को कठघरे में खड़ा कर दिया। बाध्य होकर नीतीश कुमार को इस बाबत तेजस्वी यादव से बिंदुवार जवाब देने के लिए कहना पड़ा। अंततः इसकी परिणति 26 जुलाई 2017 को हुई, जब नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन तोड़कर सरकार से इस्तीफा दे दिया और अगले दिन भाजपा के साथ सरकार बना ली। सुशील मोदी ने एक साथ तीन काम किया, पहला जदयू-राजद का गठबंधन तोड़वाया। दूसरा, सरकार को इस्तीफा कराया और तीसरा भाजपा को एक बार फिर अपने प्रयास और पराक्रम से सरकार में लाया।
स्वभाव में जुझारुपन, मगर मौत से नहीं जूझ पाए
ऐसे जुझारू और संकल्प शक्ति के धनी सुशील कुमार मोदी अब हमारे बीच नहीं हैं। 13 मई की रात करीब 10.30 बजे दिल्ली से एक मित्र ने जब यह सूचना दी तो विश्वास करना मेरे लिए सहज नहीं था। वैसे विगत महीने के पहले सप्ताह (06 अप्रैल को) मैं उनसे उनके राजेन्द्र नगर स्थित आवास पर जा कर मिला था, तभी से मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत हो गया था, मगर यह सूचना इतनी जल्द आ जाएगी, यह कल्पना से परे था। वैसे 03 अप्रैल को ही सुशील जी ने अपने एक्स अकाउंट पर यह लिख कर ‘ पिछले 6 माह से कैंसर से संघर्ष कर रहा हूं। अब लगा कि लोगों को बताने का समय आ गया है। लोकसभा चुनाव में कुछ कर नहीं पाऊंगा। प्रधानमंत्री को बता दिया है। देश, बिहार और पार्टी का सदा आभार और सदैव समर्पित‘ अपनी स्थिति से अवगत करा दिया था, बावजूद उनके निधन की खबर मेरे लिए अनभ्र वज्रपात की तरह ही था। सुशील जी के स्वभाव में जुझारूपन था, वे इतनी जल्दी हार मान जायेंगे, ऐसा विश्वास करने का तो अब भी मन नहीं कर रहा है।
संघर्ष के बूते आगे बढ़ा और खुद को स्थापित किया
छात्र राजनीति से लेकर दलगत राजनीतिक जीवन में संघर्ष के बलबूते आगे बढ़ने और अपने को स्थापित करने वाले सुशील कुमार मोदी को वर्षों काफी करीब से देखने-समझने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि न वे केवल राजनीति के होल टाइमर थे, बल्कि अपने दायित्वों को लेकर भी सदैव समर्पित रहते थे। बिहार के विकास को लेकर उनके मन में एक अजब की टीस थी। किसी भी काम को समय से पूरा करने और शत-प्रतिशत सफलता हासिल करने की उनमें एक जिद होती थी। तथ्यों और आंकड़ों को लेकर आग्रही और सजग रहने वाले सुशील जी में पढ़ने और नई जानकारी एकत्र करने की भी अद्भुत क्षमता थी। समय प्रबंधन और एक-एक मिनट का उपयोग कैसे किया जाय, इसको लेकर भी वे काफी सचेत रहते थे। सड़क और विमान यात्राओं के दौरान अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़ना, खबरों को अंडरलाइन करना और फिर दूसरे दिन उसकी कटिंग करवा कर फाइल में रखवाना उनकी आदत थी। पढ़ी गई खबरों को महीनों याद रखने की भी उनमें गजब की क्षमता थी। नई गैजट्स और टेक्नोलॉजी के प्रति भी उनमें आकर्षण था।
सुशील मोदी को आलोचनाओं को भी झेलना पड़ा था
अमूमन किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल करने के बाद प्रशंसा के साथ-साथ आलोचनाओं को भी झेलना पड़ता है। सुशील मोदी भी इससे परे नहीं थे। एक दौर ऐसा भी था कि जब भाजपा के अंदर उनकी आलोचनाएं यह कह कर तेज हो गई थी कि उनके कारण ही पार्टी जदयू की ‘बी’ टीम बन कर रह गई है। 2010 में सीएम हाउस में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उठे विवाद में आयोजित भोज रद्द हो जाने या फिर 2013 में गठबंधन टूटने और सरकार से बाहर आने के बाद आलोचनाओं की धार और तेज हो गई थी। इस बाबत एक बार मैंने सुशील मोदी से पूछा। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि-‘मैं सदैव पार्टी नेतृत्व के निर्णयों का सम्मान करता हूं और उसके साथ रहता हूं। पार्टी नेतृत्व ने मुझे सरकार में उप मुख्यमंत्री का दायित्व निर्वाह करने का निर्देश दिया। मैं वह करता रहा। सरकार में रह कर मुख्यमंत्री से लड़ना मेरा काम नहीं, बल्कि सहयोगी-भाव के साथ बिहार के विकास को आगे बढ़ाना मेरा दायित्व था।’ उन्होंने कहा कि-‘जहां तक छोटे भाई और बड़े भाई का सवाल है, तो यह मैं नहीं, जनता तय करती है। जिस दिन जदयू से भाजपा की ज्यादा सीटें आ जाएगी, उस दिन से बड़ा भाई छोटा और छोटा भाई बड़ा बन जायेगा।’
राजनीति में नहीं आता तो पत्रकार बनता
सुशील मोदी में लेखन और पत्रकारिता के प्रति भी आकर्षण था। अक्सर कहा करते थे कि ‘अगर मैं राजनीति में नहीं आया होता तो पत्रकार बनता।’ सुशील जी की इस बात से मेरी सहमति बनती है। लेखन में तथ्यों को लेकर वे काफी सजग रहते थे। एक सिद्धहस्त लेखक की तरह वाक्यों की कसावट पर जोर देते थे। प्रेस रिलीज तक में भाषा और तथ्यों की चूक से बचते थे। छोटे वाक्यों और संक्षेप में अपनी बातें कहने-लिखने के वे आग्रही थे। अखबारों की रीति-नीति और पाठकों की पसंद की उन्हें समझ थी। अक्सर कहा करते थे, अखबारों में सीमित जगह होती, 250 शब्दों से ज्यादा की प्रेस विज्ञप्ति नहीं भेजनी चाहिए। उन्हें अखबारों के बहूसंस्करणों की भी जानकारी थी। प्रतिदिन यह पड़ताल करवाते थे कि उनकी प्रेस विज्ञप्ति किसी अखबार के कितने संस्करणों में प्रकाशित हुई है।
( राकेश प्रवीर ने एक दशक तक सुशील मोदी जी के साथ मीडिया सलाहकार के तौर काम किया था।)