बिहार अतिपिछड़ा के नाम पर राजनीति की दुकान छानने वाले सभी दलों ने अतिपिछड़ों को ठगा है, छला है। जाति आधारित गणना के बाद अतिपिछड़ों में नयी जागृति आयी थी, नयी चेतना का संचार हुआ था। गणना के अनुसार, अतिपिछड़ों की आबादी 36 फीसदी से अधिक है। मतलब कुल आबादी में एक तिहाई से अधिक हिस्सा अतिपिछड़ों का है। आबादी देखकर सभी पार्टियों ने पिछड़ों के हक की आवाज उठायी। सबने पिछड़ों के सम्मान की बात की, स्वाभिमान की बात की, हिस्सेदारी की बात की, लेकिन हिस्सेदारी देने की बारी आयी तो सभी पार्टियों ने धोखा दे दिया है। लोकसभा चुनाव में टिकट देने की बारी आयी तो अतिपिछड़ी जातियों में टिकट के दावेदार अंतिम पायदान पर खड़े नजर आये। टिकट देने में भी उनसे दूरी बनाकर रखी गयी गयी।
लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों को कुल 9 टिकट दिये गये हैं। जदयू ने 4, भाजपा ने 2, राजद ने 2 और कांग्रेस ने 1 टिकट दिया है। इन 9 उम्मीदवारों में सुपौल से दिलेश्वर कामत, झंझारपुर से रामप्रीत मंडल, भागलपुर से अजय मंडल, जहानाबाद से चंद्रेश्वर चंद्रवंशी, मुजफ्फफरपुर से अजय निषाद और अररिया से प्रदीप सिंह फिलहाल सांसद हैं। अजय निषाद फिलहाल भाजपा के सांसद हैं और उन्हें कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है। नये उम्मीदवारों में मुजफ्फरपुर से राजभूषण चौधरी, मुंगेर से कुमारी अनिता और पूर्णिया से बीमा भारती हैं। इन सबकी जातिवार जानकारी अंदर के पेज पर प्रकाशित सूची में दी गयी है।
36 फीसदी वाली अतिपिछड़ी जातियों के हिस्से में आयी मात्र 9 सीटों। उम्मीदवारों की सूची जारी होने के बाद अतिपिछड़ों की हिस्सेदारी की बात करने वाली पार्टियों में सन्नाटा छा गया। पार्टियों के अंदर अतिपिछड़ा प्रकोष्ठ का मुंह बंद हो गया। आखिर अपनी ही पार्टी के अंदर अपनी जाति के हित और हिस्सेदारी की बात क्यों नहीं करते हैं। हाल के वर्षों में राजद के पूर्व विधान पार्षद डॉ रामबली सिंह चंद्रवंशी अकेले नेता हैं, जिन्होंने पार्टी के अंदर अतिपिछड़ों के हित और हिस्सेदारी की बात उठायी। इसके लिए कर्पूरीग्राम समस्तीपुर से पटना तक पदयात्रा की। तेली, तमोली और दांगी को अतिपिछड़ा वर्ग में शामिल करने का विरोध करते रहे। इसी बात को लेकर पदयात्रा भी की थी। लेकिन परिणम यह हुआ कि राजद ने इसे पार्टी विरोधी गतिविधि मानकर उनकी विधान परिषद सदस्यता समाप्त करवा दी। कहने का आशय यह भी हुआ कि अपने जातीय हित और हिस्सेदारी की बात करने का अधिकार किसी को नहीं है। जाति हित और हिस्सेदारी को लेकर कोई नेता पार्टी नेतृत्व से सवाल नहीं कर सकता है।
अतिपिछड़ों के हक और हिस्सेदारी का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है कि सभी पार्टियों के नेता मंच से अतिपिछड़ों के नाम पर गला फाड़ रहे हैं, लेकिन टिकट देने की बात आती है तो चुनाव जितने की क्षमता का आकलन किया जाता है। इसी पैमाने पर अतिपिछड़ों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है।
36 फीसदी वाले अतिपिछड़ों के लिए लोकसभा चुनाव में टिकट लाले पड़ गये, जबकि 4 दबंग जातियों में टिकट की बाढ़ आ गयी है। दोनों गठबंधनों के 40-40 यानी 80 उम्मीदवार हैं। इन 80 में 41 उम्मीदवार यादव, राजपूत, भूमिहार और कोईरी हैं। जातिवार गणित के अनुसार, लोकसभा चुनाव में दोनों गठबंधनों की ओर से यादव के 16, कोईरी के 11, राजपूत के 8 और भूमिहार के 6 उम्मीदवार बनाये गये हैं। एनडीए गठबंधन ने इन 4 जातियों के 19 उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इसमें 7 राजपूत, 5 यादव, 4 कोईरी और 3 भूमिहार उम्मीदवार हैं। इंडिया गठबंधन ने इन 4 जातियों के 22 उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इसमें यादव 11, कोईरी 7, भूमिहार 3 और राजपूत 1 शामिल हैं।
माना यह जा रहा था कि जाति आधारित गणना की रिपोर्ट आने के बाद अतिपिछड़ों को राजनीतिक रूप से काफी फायदा होगा और लोकसभा या विधान सभा में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। यह भी माना जा रहा था कि जिन जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं है, उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोशिश पार्टी और सरकार के स्तर पर की जाएगी। लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। जिन जातियों की बड़ी आबादी थी, उनका ही प्रतिनिधित्व बढ़ा। बड़ी आबादी वाली जातियों को ही सभी दलों ने महत्व दिया और टिकट वितरण में मेहरबान रहे। सुरक्षित सीट पर भी यही स्थिति रही। प्रदेश में लोकसभा की 6 सीट रिजर्व हैं। दोनों गठबंधनों को मिलाकर कुल 12 सीट होती है। इन 12 सीटों में से 6 पर चमार, 4 पर दुसाध, एक पर मुहसर और एक पर पासी समाज के उम्मीदवार हैं। इंडिया गठबंधन में 4 चमार और 2 दुसाध हैं, जबकि एनडीए में 2 दुसाध, 2 चमार, एक पासी और एक मुसहर हैं। पासी का प्रतिनिधित्व मंत्री अशोक चौधरी की बेटी कर रही हैं, जबकि मुसहर के नाम पर पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हैं। इस मामले में राजद ने एक नया प्रयोग किया है। उनसे सुपौल सामान्य सीट पर अनुसूचित जाति के चंद्रहास चौपाल को अपना उम्मीदवार बनाया है।
उधर, आरक्षित सीट हड़पने का नया फार्मूला भी दबंग जातियों ने निकाल लिया है। आरक्षित वर्ग की महिलाओं से शादी करके सामान्य वर्ग के पुरुष आरक्षित की राह निकाल रहे हैं। इसी कोशिश में जुमई सीट से मुकेश यादव की पत्नी अर्चना रविदास राजद की उम्मीदवार हैं, जबकि भूमिहार किशोर कुणाल की पुत्रवधू शांभवी चौधरी समस्तीपुर से लोजपारा की उम्मीदवार हैं। इसे प्रगतिशीलता को प्रयास भी कहा जा सकता है।
सबसे बड़ी बात है कि निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव को प्रभावित करने वाले लोग भी दबंग जातियों के ही होते हैं। पूर्णिया से पप्पू यादव, नवादा से विनोद यादव, झंझारपुर से गुलाब यादव, बक्सर से ददन यादव जैसे अनेक उम्मीदवार विभिन्न क्षेत्रों से किसी के हार-जीत के बड़े कारण साबित हो सकते हैं।
कुल मिलाकर चुनाव बड़ी आबादी वाली जाति का खेल रह गया है। एक प्रतिशत या उससे कम आबादी वाली जातियों के लिए चुनावी रानजीति में स्कोप खत्म हो गया है। पार्टियां प्रतिनिधित्व के नाम एक-दो सीट भले किसी कम आबादी वाली जाति के उम्मीदवार को दे दे, लेकिन सामान्य तौर पर इससे परहेज करती हैं। जहानाबाद में कहार, मुजफ्फरपुर में मल्लाह, भागलपुर में गंगोता, झंझारपुर में धानुक जाति को टिकट इसलिए दिया जाता है कि उस क्षेत्र विशेष में वह बड़ी आबादी वाली जाति है। इस समीकरण में अतिपिछड़ा की 4-5 जातियां ही कुछ इलाकों में प्रभावी हैं और उनकी संख्या भी पिछड़ी जातियों में ज्यादा है। इसका ही लाभ उन्हें मिल रहा है। राज्य सभा या विधान परिषद में भी अब बड़ी आबादी वाली जातियों का ही प्रवेश संभव रह गया है। पार्टियां भी उम्मीदवारों का चयन जाति की आबादी के हिसाब से करती हैं।
देश का लोकतंत्र जाति तंत्र में तब्दील हो गया है। यह धीरे-धीरे ज्यादा रूढ़ होता जा रहा है। लोकतंत्र कुछ जातियां का बंधक होता जा रहा है। संसदीय संस्थाओं का समावेशी स्वरूप ध्वस्त होता जा रहा है। कुछ जातियों का प्रतिनिधित्व निर्लज ढंग से बढ़ रहा है तो अधिकतर जातियां हाशिये पर धकेल दी गयी हैं। यह सामाजिक और राजनीतिक संरचना के लिए खतरनाक है और इस खतरे के प्रति पार्टियों को सचेत रहना चाहिए।