सुशील कुमार मोदी। उनसे हमारा पहला परिचय 2013-14 में हुआ था। उस समय वे विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष हुआ करते थे। सेशन चल रहा था। कुछ पत्रकारों के साथ हम भी उनके चैंबर में बैठे थे। बैठकी खत्म हुई तो हम चैंबर से निकलने से पहले अपना विजिटिंग कार्ड देकर बाहर निकलने लगे। उसे पढ़ने के बाद उन्होंने हमें रोका और कहा कि आप वही वीरेंद्र यादव हैं, जो मेल पर खबर भेजते हैं। हमने हामी भरी। इसके बाद फिर बैठाया। उन्होंने कहा कि आप अच्छी खबर लिखते हैं। फैक्ट के साथ मसाला मिलाकर खबरों को पठनीय बना देते हैं। इस परिचय के बाद संबंध प्रगाढ़ होता गया।
जब हमने वीरेंद्र यादव न्यूज की शुरुआत की तो उन्होंने काफी प्रोत्साहित किया। वे इस बात से लेकर ज्यादा खुश रहते थे कि पिछड़ा समाज का कोई व्यक्ति अपने नाम से अखबार निकाल रहा है। सच ये है कि सुशील मोदी का पिछड़ावाद हमें काफी पसंद था। वैचारिक स्तर पर पार्टी के साथ होने के बाद भी पिछड़ावाद उनकी प्राथमिकता रहती थी। 1990 में विधायक बने, 1996 में नेता प्रतिपक्ष बने। इसके बाद वे पार्टी के वैचारिक केंद्र बन गये। धीरे-धीरे बिहार में पार्टी के पर्याय भी। उन्होंने अपने समय में किसी सवर्ण को पार्टी के अंदर स्थापित नहीं होने दिया। सवर्णों को सत्ता और संगठन में पद भले मिला हो, लेकिन कद कभी बड़ा नहीं होने दिया। भारतीय जनता पार्टी के अंदर वे पिछड़ा राजनीति के सबसे प्रमुख प्रवक्ता थे। पिछड़ों के हित को लेकर सचेत भी रहते थे। भाजपा के धार्मिक उन्माद के बीच पिछड़ों के लिए मार्ग प्रशस्त करना उनकी प्राथमिकता रहती थी।
उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई थी। नाम था बीच समर में। उस पुस्तक को हमने शुरू से अंत तक पढ़ा और उसकी समीक्षा तीन किस्तों में लिखी। हमारी समीक्षा पर उनकी प्रतिक्रिया था कि किताब से ज्यादा बढि़या तो उसकी समीक्षा लिखी है आपने। हमारी हर खबर को वे पढ़ते थे। वे कहते भी थे कि आपकी खबरों का एक-एक शब्द पढ़ते हैं। वीरेंद्र यादव न्यूज के नियमित पाठक थे। उन्होंने पत्रिका की निरंतरता के लिए आर्थिक मदद भी की थी। उनके एक सहयोगी का कहना था कि मोदीजी के कंप्यूटर में आपके नाम का एक फोल्डर ही बना हुआ था।
जब हम कोरोना के शिकार हुए थे तो इलाज के दौरान मंगल पांडेय और उनका काफी सपोर्ट मिला था। मेरी पत्नी और तीनों बच्चे कोरोना से पीडि़त थे। वह समय हमारे लिए काफी डिप्रेशन का था। उस दौर में सुशील मोदी और मंगल पांडेय ही सबसे मददगार साबित हुए थे। हम जब एम्स से वापस आये तो उसके 3-4 दिन बाद विधान सभा का एक दिवसीय सत्र ज्ञान भवन में आयोजित होना था। वह कोरेनटाईन का समय था। सुशील जी ने सेशन से दो दिन पहले फोन करके कहा था कि विधान सभा का सेशन में मत आइएगा। वे निजी परेशानी में भी संवेदनात्मक रूप से साथ रहते थे।
वे 2015 के विधान सभा चुनाव में हमें ओबरा से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ाना चाहते थे। लेकिन उस साल यह सीट उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के कोटे में चली गयी थी। उसके बाद हमने एमएलसी बनाने का आग्रह किया था तो उन्होंने कहा कि यादव चुनाव जीतकर आ सकते हैं। 2019 में हम डिहरी विधान सभा उपचुनाव में भाजपा का टिकट चाहते थे और उनसे बातचीत भी थी। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया था कि यह टिकट किसी कार्यकर्ता को दिया जाएगा। सुशील जी से किसी भी मुद्दे पर सहजता से बात की जा सकती थी। वे किसी भी बात को लटकाने के बजाये स्पष्ट जबाव दे देते थे।
सुशील मोदी की ओर से हर साल आयोजित होने वाला मीडिया भोज पटना में एक इवेंट बन जाता था। नये-पुराने पत्रकारों को मिलने का अवसर बन जाता था। उनसे जब भी फोन पर बात होती थी तो यह जरूर कहते थे कि आपकी हर खबर पढ़ते हैं। एक बार रेणु देवी भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनी थीं। हमने अपनी खबर में उनकी जाति के रूप में बनिया होने की चर्चा की थी। कुछ देर सुशील जी का मेल आया, जिसमें लिखा हुआ था कि रेणु देवी बनिया नहीं, नोनिया हैं। इतने सचेत पाठक हर पत्रकार या लेखक को नसीब नहीं होते हैं। सुशील मोदी के रूप में हमने अपना एक पाठक खो दिया है।