प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 25 मई को आठवीं बार बिहार के चुनावी दौरे पर आ रहे हैं। उस दिन वे पाटलिपुत्र, बक्सर और काराकाट लोकसभा क्षेत्र में चुनावी सभा को संबोधित करेंगे। चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा के बाद से प्रधानमंत्री 21 मई तक बिहार में 17 चुनावी सभाओं को संबोधित कर चुके हैं। इन 17 कार्यक्रमों में 12 मई को पटना साहिब में आयोजित उनका रोड शो भी शामिल है। 25 मई को संभवत: बिहार में चुनावी सभाओं की पूर्णाहुति होगी। पीएमओ से प्राप्त जानकारी के अनुसार, 29 मई तक कार्यक्रम उनका फाइनल हो चुका है। 26 से 29 मई के बीच बिहार में उनका कोई कार्यक्रम नहीं है। 30 मई चुनाव प्रचार का अंतिम दिन है।
बिहार में चुनाव के दौरान इतना धड़ाधड़ दौरा बता रहा है कि प्रधानमंत्री की धड़कन बढ़ी हुई है। इस चुनाव में धुआंधार प्रचार से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दूर रहे हैं। कुछ चुनावी सभाओं को वे जरूर संबोधित कर रहे हैं, लेकिन उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। जिस तरह प्रधानामंत्री के लिए विकसित भारत का इतिहास 2014 में शुरू होता है, उसी तरह से नीतीश कुमार के लिए विकसित बिहार की गाथा 2005 से शुरू होती है। लेकिन अपने शासन काल की उपलब्धि के नाम पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव की संतानों की संख्या बता रहे हैं। मुख्यमंत्री मंच पर क्या बोल जाएंगे, इसका भरोसा किसी को नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में मुख्यमंत्री को नहीं बुलाते हैं। विवशतावश मुख्यमंत्री को साथ में रखना भी पड़ा तो भाषण देते समय उन पर निगरानी बढ़ा दी जाती है।
बिहार के चुनाव अभियान में मुख्यमंत्री अप्रसांगिक हो गये हैं। सभाओं में उनकी उपस्थिति औपचारिकता बन कर रह गयी है। वैसे में एनडीए का चुनाव अभियान खुद प्रधानमंत्री ने संभाल लिया है। सहयोगी पार्टी जदयू, लोजपा, हम और रालोमो का चुनाव में सिर्फ सिंबल ही रह गया है। उनके नेताओं का होना या नहीं होना, बराबर हो गया है। प्रधानमंत्री इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ हैं। इसलिए बिना आधार वाले सहयोगियों की पालकी में भी स्वयं कंधा लगा लिया, ताकि प्रधानमंत्री की खुद की पालकी मंजिल तक पहुंच सके।
प्रधानमंत्री के रूप में चुनाव का मैनेजमेंट करना उनका दायित्व भी बनता है, लेकिन किसी राज्य का मुख्यमंत्री की हैसियत भी प्रधानमंत्री के साये में विलीन हो जाए तो यह दुखद है। 40 में से 20 लोकसभा सीटों पर प्रधानमंत्री को सभा करनी पड़ रही है। इतनी सघन चुनावी रैली शायद ही किसी अन्य राज्य में प्रधानमंत्री ने की है। प्रधानमंत्री के सहयोगी दलों के नेता ‘लंगड़े’ हैं ही, खुद प्रधानमंत्री की पार्टी भाजपा बिहार में ‘अंधी’ है। उसे लालू यादव से आगे आभास ही नहीं होता है। बिहार भाजपा का कोई भी नेता अपने विधान सभा या लोकसभा क्षेत्र के बाहर एक भी वोट अपने प्रभाव में पार्टी को नहीं दिलवा सकता है। जाति के समीकरण से आगे नहीं बढ़ पाता है।
इस त्रासदपूर्ण स्थिति में प्रधानमंत्री को विकास के गुडफील की पटरी से उतरकर जाति और धर्म के रास्ते से लोकसभा की राह तय करनी पड़ रही है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। चुनाव में कौन पार्टी जीतती है, इसका इंतजार सबको है। लेकिन चुनाव अभियान में एनडीए हांफ रहा है। प्रधानमंत्री की बिहार परिक्रमा इसी बात का प्रमाण है।