पिछले लोकसभा चुनाव में मगध और शाहाबाद के वोटरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को औकात बता दी थी। शाहाबाद और मगध के नौ जिलों में 8 लोकसभा सीट आती है। इनमें से 6 सीटों पर एनडीए को मुंह की खानी पड़ी थी। आगामी विधान सभा चुनाव पूरी तरह नरेंद्र मोदी और भाजपा केंद्रित होगी। नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी, चिराग पासवान या उपेंद्र कुशवाहा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले की हड्डी भर हैं। सवर्णपरस्त भाजपा को ऐसे नेताओं को सत्ता की जूठन चाटने के लिए थाली पसारकर रखना पड़ता है।

भाजपा की मगध और शाहाबाद में पूरी राजनीति यादवों के खिलाफ नफरत और भय की रही है। इसकी एक बड़ी वजह सामाजिक भी है। भाजपा के साथ तन, मन और धन के साथ खड़ी दो जाति राजपूत और भूमिहार की राजनीतिक वजूद ही यादव के खिलाफ राजनीति करने से बची हुई है। इसलिए भाजपा राजपूत और भूमिहारों को खुश करने के लिए यादव जाति के खिलाफ नफरत की राजनीति का सहारा लेती है। इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है और इन दो इलाकों में भाजपा कभी सामाजिक और राजनीतिक रूप से मजबूत ताकत नहीं बन पायी।
यादव के खिलाफ भाजपा की नफरत की राजनीति विधान सभा चुनाव में टिकट वितरण से देखा जा सकता है। मगध और शाहाबाद में यादव जाति सबसे बड़ी सामाजिक और राजनीतिक ताकत है। इस जाति को टिकट देने से भाजपा परहेज करती है। संगठन में भी यादवों को किनारा किया जाता है। सच यह भी है कि भाजपा के साथ यादव कार्यकर्ता ही नहीं हैं तो संगठन के लिए आदमी कहां से मिलेंगे।
पिछले विधान सभा चुनाव में शाहाबाद और मगध की 48 विधान सभा सीटों में से 21 पर भाजपा ने अपना उम्मीदवार दिया था। उसमें से एकमात्र यादव उम्मीदवार सत्य नारायण सिंह को डिहरी से टिकट दिया था, वह चुनाव हार गये। वह दो बार राजद के विधायक रहे थे, जिन्होंने बाद में भाजपा का दामन थामा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार 30 मई को काराकाट विधानसभा सीट के तहत आने वाले प्रखंड बिक्रमगंज में चुनावी सभा को संबोधित करेंगे। इस चुनावी सभा में प्रधानमंत्री सिंदूर का रायता फैलाएंगे। उनके गले की हड्डी भी उसी रायता पर लोटेंगे। विकास योजनाओं की घोषणा भी करेंगे। यादवों के खिलाफ नफरत की नयी आंच भी सुलगाएंगे। दरअसल एनडीए नामक दुकान का सभी माल यादव विरोधी रैपर में पैक किया हुआ होता है।
नरेंद्र मोदी को बिहार के यथार्थ को समझना होगा। राजपूत-भूमिहारों की पालकी ढोने से भाजपा बिहार में कभी सत्ता में नहीं आने वाली है। उसे बिहार में सत्ता हासिल करने के लिए यादव को लेकर अपनी रणनीति और अवधारणा दोनों बदलनी होगी। यादवों में से नया नेतृत्व तैयार करना होगा। यादव का पुराना नेतृत्व भूमिहार कुंठा से उभर नहीं पाया है। हमने भाजपा के एक बड़े नेता से पूछा था किआप यादव की बात पार्टी मंच पर क्यों नहीं करते हैं। तब उनका जवाब था कि यादव की बात करेंगे तो भूमिहार भड़क जाएगा। बिहार में कुल मिलाकर दर्जन भर सांसद और विधायक भाजपा के हैं। शायद ही कोई पार्टी मंच पर यादव की हिस्सेदारी, हित या सरोकार की बात करते हैं। ऐसे लोग तो यादव के नाम पर भाजपा के बोझ ही बने हुए हैं।
प्रधानमंत्री को बिक्रमगंज के चुनावी मंच से घोषणा करना चाहिए कि 14 फीसदी आबादी वाली यादव जाति को केंद्र और राज्य की सत्ता में कितनी हिस्सेदारी देंगे। जीत की संभावना वाली कितनी सीटों पर यादवों को टिकट देंगे। पिछले विधान सभा चुनाव में भाजपा ने हारने वाली सीटों पर ही यादव को टिकट थमाकर शहादत भेंट कर दी थी। बिहार की राजनीति पर विश्लेषणात्मक और सबसे महंगी पुस्तक जाति की राजनीति पार्ट – 2 (कीमत 5500) के अनुसार, पिछले चुनाव में भाजपा ने 20 भूमिहारों को टिकट दिया था, उनमें से 16 जीत गये थे, जबकि भाजपा 21 यादवों को टिकट दिया था, जिसमें 14 हार गये थे।
प्रधानमंत्री को मगध और शाहाबाद में यादवों को जोड़ने के लिए नयी रणनीति बनानी होगी। उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को समझना होगा। भाजपा को सवर्णपरस्ती से ऊपर उठना होगा। जदयू जैसी अविश्वसनीय पार्टी और लोजपा, हम और रालोमो जैसी परजीवी पार्टियों के कंधों पर भाजपा की अर्थी ढोयी जा सकती है, सत्ता की पालकी नहीं।